गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 206

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्

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प्रलय 'उद्यति' पद के द्वारा बतलाया है कि वह गिरकर पुन: उठ खड़ी होती हैं और 'मूर्च्छति' पद के द्वारा प्रलय नामक सात्त्विक भाव को सखी निर्दिष्ट करती है।

इस प्रकार श्रीराधा की प्रिय सखी ने श्रीकृष्ण से कहा है, अश्विनीकुमार की भाँति स्वर्वैद्य सुचिकित्सक यदि आप श्रीराधा पर प्रसन्न हो जाएँ तो क्या यह उनकी कन्दर्प-विकार जनित बीमारी दूर नहीं होगी? यद्यपि बुखार की इस अवस्था में रसायन निषिद्ध हैं तथापि उनके शरीर में नलिनी (कमल) दल का स्थापन, ताल के पंखा आदि से वीजन कुछ भी उस विरह-व्याधि को उपशमित नहीं करता है, अपितु क्रमश: वर्द्धित होता जाता है। वह इतनी दुर्बल हो गयी हैं कि बस हाथों को ही हिला पाती हैं- यदि वह यह जान ले कि आप उन्हें नहीं मिलेंगे तो उनका मरण सुनिश्चित ही है।

आप में ही दत्तचित्त वाली उसे आप दर्शन देकर जीवित नहीं करते हैं, तो फिर आपको आश्रितों के परित्याग का पाप भी लगेगा।

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूलविक्रीड़ित नामक छन्द है। दीपक अलंकार है। विप्रलम्भ श्रृंगार-रस है। नायक अनुकूल अथवा दाक्षिण है। नायिका उत्कण्ठिता है। सखी कहती है जो नायिका की सहायिका है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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