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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ नवम: सन्दर्भ
सा रोमाञ्चति शीत्करोति विलपत्युत्कम्पते ताम्यति अनुवाद- हे अश्विनीकुमार सदृश वैद्यराज श्रीकृष्ण! वरांगना श्रीराधा विरह-विकार में विमोहित होकर कभी रोमाञ्चित होती हैं, कभी सिसकने लगती हैं, कभी चकित हो जाती हैं, कभी उच्च स्वर से विलाप करती हैं, कभी कम्पित होती हैं, कभी एकाग्रचित्त होकर तुम्हारा ध्यान करती हैं, क्रीड़ास्थलों में भ्रमण करती हैं, विषम विभ्रम के कारण विह्नल हो नेत्रों को निमीलित कर लेती है, कभी वसुधा पर गिर पड़ती है, पुन: उठकर चलने की तैयारी में फिर मूर्च्छित हो गिर जाती हैं, उन्हें सन्निपात ज्वर हो गया है। यदि आप प्रसन्न होकर इस घोरतर मदन-विकार में उसे औषधिरूप रसामृत प्रदान करें, तो उन्हें प्राण-दान मिलेगा। अन्यथा अब तो उनकी हाथों की चेष्टाएँ भी समाप्त हो जायेंगी मर जायेंगी वह। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [पुनरतीव कैवल्यं वर्णयतिज हे स्वर्वैद्यप्रतिम (अश्विनी-कुमार-सदृश-सुचिकित्सक) यदि त्वं प्रसीदसि (प्रसन्नोभवसि) [तर्हि] एतावति (उत्कटेऽपि इत्यर्थ:) अतनु-ज्वरे (कामज्वरे अन्यत्र अनल्पे हिते ज्वरे) सा वरतनु: (वरवर्णिनी) राधा ते (तव) रसात् (अनुग्रह-जनितात् अनुरागात्र अन्यत्र रस-प्रयोगात्र औषधात्) किं न जीवेत् [अपि तु जीवेदेव]; [वरतनुरिति तत्समा अन्या नास्तीति तस्या रक्षणं युक्तमिति ध्वनि:]; अन्यथा (नोचेत्) हस्तक: (हस्तक्रिया; पाचनाद्यौषधान्तर-दानरूपा) [वैद्यै:] त्यक्त: [दानेऽपि औषधस्य विषयाप्राप्तेरित्याशय:; कामज्वरपक्षेऽपि शीतलाद्युपचार: सखीभिस्त्यक्ते इत्यर्थ:] [ज्वरावस्थां दर्शयतिज सा रोमाञ्चति (रोमाञ्चिता भवति) शीत्करोति (शीत्कारं करोति) विलपति (रोदिति) उत्कम्पते (उच्चै:कम्पते) ताम्यति (ग्लानिमाप्नोति) ध्यायति (कथं लभ्यते इति चिन्तयति) उद्रभ्रमति (उच्चै: भ्रान्तिमाप्नोति) प्रमीलति (अक्षिणी सकोंचयति) पतति (भूमौ लुठति) उद्रयाति (उत्थातुमिच्छति) मूर्च्छति (मोहं प्राप्नोति) अपि ॥1॥
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