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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्
अनुवाद- यहाँ नवें प्रबन्ध का प्रारम्भ होता है। यह गीत देशराग तथा एकताली ताल से गाया जाता है। बालबोधिनी- जब चन्द्रमा की किरणें चतुर्दिक दीप्तिशाली हो रही हों और नायक मल्ल-मूर्त्ति में विशाल भुजाओं के द्वारा विस्फोट का आविष्कार कर लोम हर्ष का प्रकाश करता हो, उस समय देशाख राग गाया जाता है। स्तन-विनिहितमपि हारमुदारम्, अनुवाद- केशव! आपके विरह की अतिशयता के कारण श्रीराधा ऐसी कृशकाया हो गयी हैं कि स्तन पर रखे हुए मनोहर हार को भी भारस्वरूप समझ रही हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- इस प्रबन्ध में सखी पुन: नयी शैली से श्रीराधा की व्यथा का वर्णन करती है। श्रीकृष्ण के विरह के कारण श्रीराधा के अंग अत्यधिक कृश हो गये हैं। वक्ष:स्थल पर पहनी हुई कमल-पुष्पों की मनोहर माला को भी अपनी शारीरिक दुर्बलता के कारण धारण करने की सामर्थ्य उसमें नहीं रही। गीतगोविन्द के दीपिकाकार का कहना है कि 'कम्' सुख का नाम है। श्रीकृष्ण कम् के नियन्ता हैं, इसीलिए केशव कहे जाते हैं। दीपिकाकार आगे कहते हैं 'केश' शब्द का अर्थ है सभी को सुख प्रदान करना। केशव पद का 'व' शब्द युवतियों के जीवनस्वरूप अमृत का वाचक है। श्रीकृष्ण युवतियों के जीवनस्वरूप होने से केशव कहे जाते हैं। फिर केशव से स्नेह करने वाली श्रीराधा दु:खी क्यों? वह विरह में ऐसी विचित्र बातें कहती हैं जो कही नहीं जातीं सारे आभूषण भारी ही नहीं, अपितु शाप बन गये हैं माला को फेंक देना चाहती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [पुनस्तचेष्टामेव विशेषतया आहज]- हे केशव, तव विरहे कृशतनु: (क्षीणांगी) सा राधिका स्तनविनिहितम् (स्तनन्यस्तम्) उदारम् (मनोहरम्) अपि हारं [शरीरदौर्वल्यात्] भारमिव मनुते (हारवहनस्यापि सामर्थ्यं तस्या नास्तीत्यर्थ:) ॥1॥
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