गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 181

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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तिर्य्यक्-कण्ठ-विलोल-मौलि-तरलोत्तंसस्य वंशोच्चरद्
गीति-स्थान-कृतावधान ललना-लक्षै र्न संलक्षिता:।
सम्मुग्धं मधुसूदनस्य मधुरे राधामुखेन्दौ सुधा-
सारे कन्दलिताश्चिरं ददतु व: क्षेमं कटाक्षोर्म्मय: ॥14॥[1]

इति श्रीगीतगोविन्द महाकाव्ये मुग्ध-मधुसूदनो नाम तृतीय: सर्ग:।

अनुवाद- त्रिभंग भाव से अपनी ग्रीवा को बंक्रिम करने के कारण जिनका शिरोभूषण (मुकुट) एवं कुण्डल दोलायमान हो रहे हैं, लक्ष-लक्ष गोप-रमणियाँ वेणु-ध्वनि के सुदीप्त उच्चारण स्थान पर ध्यान लगायी हुई उनके मध्य में स्थित श्रीराधा के मनोहर तथा अमृतमय मुखारविन्द को स्नेहातिशयता के कारण स्थिर दृष्टि से देखते हुए श्रीकृष्ण की कटाक्षपात राशि की उर्मियाँ आप सबका मंगल विधान करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अधुना आशिषा सर्गं समापयतिज तिर्य्यक्-कण्ठ-विलोल-मौलि-तरलोत्तंसस्य (तिर्य्यक् ईषद्रवक्र: कण्ठ: यस्य स: विलोल: चञ्चल: मौलि: मस्तकं तत्रत्य चूड़ा वा यस्य तथाभूत: तथा तरलौ चञ्चलौ उत्तंसौ कुर्णकुण्डलौ यस्य स:; विशेषण-समास: तादृशस्य) मधुसूदनस्य मधुरे (मनोहरे) राधामुखेन्दौ (राधाया: मुखम् इन्दुरिव तस्मिन्) मृदुस्पन्दम् (ईषचञ्चलं यथास्यात्र तथा) कन्दलिता: (पल्लविता:, अन्यगोपांगनावदनोड़ुगणमपहारा तत्रैव उल्लसिता: (वंशोच्चरद्- गीति-स्थान-कृतावधान-ललनालक्षै: (वंशात्र वेणुत: उच्चरत् या गीति: तस्या: स्थानेषु पदेषु कृतम् अवधानं यै: तादृशै: ललनानां गोपसुन्दरीणां लक्षै:) न संलक्षिता: (अविज्ञ्ता इत्यर्थ:) कटाक्षोर्म्मय: (कटाक्षाणाम् ऊर्म्मय: तरंगा: अपांगदर्शन-श्रेणीत्यर्थ:) व: (युष्माकं) चिरं क्षेमं दधतु। [अतएव मुग्धमधुसूदनो रसविशेषास्वाद-चतुरस्ततो मुग्धो मधुसूदनो यत्र इत्ययं सर्गस्तृतीय:]॥14॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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