गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 174

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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कामदेव के पुष्पबाण पाँच प्रकार के होते हैं (1) आम्र मुकुल, (2) अशोक पुष्प, (3) मल्लिका पुष्प, (4) माधवी पुष्प, (5) बकुल पुष्प (मौलश्री)।

वसन्त ऋतु होने के कारण आम्रमञ्जरी वृक्षों के अग्रभाग में निकल आयी है। श्रीकृष्ण विचार कर रहे हैं कि कामदेव इसी आम्रमञ्जरी को अपना बाण बनाकर राधा-विरह में व्यथित मुझ पर ही आघात करेगा। अतएव उसे विरमित कर रहे हैं तुम आम्रमञ्जरी के उस बाण को अपने करों में ग्रहण मत करो।

मा चापमारोपय यदि तुमने निज हाथों में धारण कर ही लिया है, तो भी इसे अपने धनुष की प्रत्यंचा पर मत चढ़ाओ। हे क्रीड़ानिर्जित विश्व अपने खेल से ही विश्व को जीतने वाले! मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ, वह बाण मुझ निष्प्राण का वध कर डालेगा। तुम विश्वविजयी हो, मैं श्रीराधा के वियोग के कारण मृततुल्य हूँ। तुम्हारे जैसा वीर किसी मरे को मारने लगे, तो तुम्हारा ही अपयश होगा, तुम्हारे पराक्रम की प्रशंसा न होगी।

'मनसिज' इस पद से श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि तुम तो मेरे मन से ही उत्पन्न हुए हो। जिससे उत्पन्न हुए हो, उसी को मारने लग जाना तो कोई उचित कार्य नहीं है। तुम श्रीराधा के लिए मेरे प्रति बाणों का प्रहार करना चाहते हो तो श्रीराधा के प्रसृमर कटाक्षपातरूपी बाण जो तुम्हारे बाणों से भी अधिक तीक्ष्ण है, उसी से जर्ज्जरित हो गया हूँ। इस घायल पर असाध्य विषबाण का प्रहार क्यों?

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल विक्रीड़ित छन्द तथा आक्षेपालंकार है ॥1॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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