गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 173

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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पद्यानुवाद

शिवके धोखे 'अशिव' कृत्य क्यों करते मनसिज भोले!
रोष भरे बरसाते हो शर निशिदिन तरकस खोले।
आम्रमञ्जरीके बाणोंको मत निज करमें मारना।
यदि धरना तो धनुपर धरकर सन्धान न करना॥
देख रहे हो मृगनयनीके शरसे हियका छिदना।
पुन: तुम्हारे बाणोंका क्या सह पाऊँगा बिधना॥
निज क्रीड़ासे जीत विश्वको उस पर शासन करते।
मूर्च्छित जन पर कर प्रहार क्यों शौर्य प्रदर्शन करते?

बालबोधिनी- कामदेव ने मानो श्रीकृष्ण से कहा मेरे शरीर को जलाने वाला वह शिव तो शत्रु है ही, परन्तु आप भी मेरे शासन का उल्लंघन करने वाले हैं, अत: आप पर भी बाणों का अनुसन्धान करूँगा। तब श्रीकृष्ण काम को उपालम्भ देते हुए कहते हैं कि हे मनसिज! मत लो हाथ में आम के बौरों का बाण।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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