गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 168

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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क्षम्यतामपरं कदापि तवेदृशं न करोमि।
देहि सुन्दरि दर्शनं मम मन्मथेन दुनोमि-
हरि हरि हतादरतया... ॥7॥[1]

अनुवाद- हे सुन्दरि! मुझे क्षमा कर दो। अब तुम्हारे सामने ऐसा अपराध कभी नहीं करूँगा। अब दर्शन दो, मैं कन्दर्प पीड़ा से व्यथित हो रहा हूँ।

पद्यानुवाद
क्या न क्षमा अब कर दोगी निज अपराधी को रानी?
मधुमयि! दर्शन दे कष्टोंकी कर दो अन्त कहानी॥
भूल न होगी; अब भविष्यमें यह आँखोंका पानी-
साक्षी है, कवि 'जय' के स्वरमें गूँजी मोहन-वाणी॥

बालबोधिनी- श्रीकृष्ण की उद्वेगावस्था की चरम सीमा यहाँ कवि द्वारा अभिव्यक्त हो रही है। मन में श्रीराधा की स्फूर्त्ति होने लगी है, उनके सामने वे अपने आराध्य की स्वीकृति करते हुए कह रहे हैं, हे राधे! मेरे अपराधों को क्षमा करो, जो कुछ हो गया उसे भूल जाओ, भविष्य में अब कभी ऐसा अपराध नहीं करूँगा। मुझे दर्शन दो, मैं तुम्हारा अति प्रिय हूँ, तुम मेरी आँखों से ओझल मत होओ। तुम्हारे विरह में मैं कामताप से झुलसा जा रहा हूँ।

प्रस्तुत गीत में वर्णित नायक श्रीकृष्ण धीर ललित हैं तथा परस्पर अनुराग जनित विप्रलम्भ-श्रृंगार इस गीत का प्रधान रस है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- हे सुन्दरि, क्षम्यतां [अपराधमिमम् इति शेष:] कदापि तव अपरम् ईदृशम् (एवम्प्रकारं) [अपि्रयमिति शेष:] न करोमि (करिष्यामि); [अत:] मम दर्शनं देहि; मन्मथेन (मनो मथ्नातीति मन्मथो विरह: तेन) दुनोमि (क्लेशं प्राप्नोमि) ॥7॥

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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