गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 160

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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पद्यानुवाद
रूठ गयी अपमानित हो लख मुझको गोपीजनमें।
मैं अपराधी रोक न पाया उसको आकुल क्षणमें॥

बालबोधिनी- हरिहरीति-खेदे श्रीकृष्ण अपने विषाद की अभिव्यक्ति कर रहे हैं। हाय! बड़े कष्ट की बात है कि प्रभूत गुणसम्पन्ना श्रीराधा मुझे ब्रजसुन्दरी समूह से घिरा हुआ देखकर अपने को अनादृत एवं उपेक्षित समझकर यहाँ से दूर चली गयीं। वे मेरे हृदय में प्रेयसी के रूप में विद्यमान हैं, मेरे प्रति उनके आन्तरिक प्रेम का कभी व्यतिक्रम भी नहीं हुआ है, फिर भी श्रीराधा के प्रति यह मेरा अपराध हो गया है। अपराधी होने के कारण मैं भयभीत हो गया, उनसे अनुनय विनय भी नहीं कर सका, उन्हें मना भी न सका। वे कुपित-सी होकर यहाँ से चली गयीं। मुझे बड़ा विषाद हो रहा है ॥1॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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