गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 151

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्

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दुरालोक: स्तोक-स्तवक-नवकाशोक-लतिका-
विकाश: कासारोपवन-पवनोऽपि व्यथयति।
अपि भ्राम्यद्रभृंगी रणित-रमणीया न मुकुल-
प्रसूतिश्चूतानां सखि शिखरिणीयं सुखयति ॥2॥[1]


अनुवाद- सखि! श्रीकृष्ण के विरह में मेरा मन अब किसी भी प्रकार से परितृप्त नहीं हो रहा है। देखो! यह ईषत्र विकसित अशोक की नयी लता की प्रफुल्ल शोभा मेरे नयनों का शूल बन गयी है। इस सरोवर के समीप स्थित उपवनों से आने वाली समीरण (बयार) भी मेरा अंग-अंग दु:खा रही है। चारों ओर भ्रमण करने वाले भौरों के सुन्दर गुञ्जन भी अच्छे नहीं लग रहे हैं। उनके गुञ्जन से मनोज्ञ बने हुए वृक्षों के अग्रभाग में निकले हुए आमों के नये-नये बौर भी मुझे सुखी नहीं बनाते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [इदानीं विरहव्याकुलतां दर्शयतिज]- सखि, [अधुना] स्तोकस्तवक-नवकाशोक-लतिका-विकाश: (स्तोकस्तवका अल्पगुच्छा या नवका नवपुष्पिता अशोकलतिका तस्या: विकाश:) दुरालोक: (उद्दीपकत्वात् नितरां दुर्द्दश:); [तथा] कासारोपवन-पवनोऽपि (कासार: सरोवर: तेन सम्पृक्तं यत्र उपवनं तस्य पवनोऽपि [एतेन वायो: शैत्यसौगन्ध्यमान्द्यगुणो ध्वनित:] व्यथयति (सन्तापयति); [तथा] भ्राम्यद्रभृंगी-रणित-रमणीया (भ्राम्यन्तीनां भृंगीणां रणितै: गुञ्जितै: रमणीया मनोहारिणी) शिखरिणी (प्रशस्ताप्रुरसमन्विता) इयं चूतानां (आम्राणां) मुकुलप्रसूति: (मुकुलोग्म:) अपि न सुखयति [अपितु सन्तापयत्येव; अधुना अशोकोऽपि शोकदायी, समीरणोऽपि पीड़क:; रमणीयापि उद्वेगकरीति अहो विरहवैपरीत्यम्] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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