विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्
चरण-रणित-मणि-नूपुरया परिपूरितं सुरत-वितानम्। अनुवाद- केलिक्रीड़ा काल में मेरे चरणों के मणिखचित नूपुरों की रुन्झुन् ध्वनि गूँज उठती थी, करघनी मुखरित होकर क्रमानुसार विशृंखलित हो गयी थी। उस सुरतक्रीड़ा का परिपूर्ण विस्तार करने वाले, मेरे केशपाश को ग्रहणकर मुखमण्डल पर बारम्बार चुम्बन करने वाले श्रीकृष्ण से मुझे मिला दो। पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखि! जिस समय श्रीकृष्ण सुचारु रूप से सुरतक्रीड़ा का सम्पादन करते थे, उस समय मेरे पैरों के मणिपूरित नूपुर झंकृत हो उठते थे। पहले तो मेरी कटि-करघनी बजने लगती थी, किन्तु बाद में वह टूट जाने के कारण नि:शब्द हो जाती थी। मेरे केशों को पकड़कर वे मेरा चुम्बन करते थे, हे सखि! मुझे उन्हीं श्रीकृष्ण से मिला दो ॥6॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- चरण-रणित-मणि-नूपुरया (चरणयो: पादयो: रणितौ शब्दितौ मणिनुपूरौ मणिमय-मञ्जीरौ यस्या: तादृश्या) [मया सह] परिपूरित-सुरत-वितानं (परिपूरित: सम्पूर्णतां प्रापित: सुरतवितान: परि-रम्भण-विस्तार: येन तादृशं) [केशिमथनम्....] [तथा] मुखर-विश्रृंखलामेखलया (पूर्वं मुखरा: शब्दायमाना: पश्चाच्च विश्रृंखला त्रुटितगुणा मेखला काञ्ची यस्या: तादृश्या) [मया सह] सकच-ग्रह-चुम्बन-दानं (सकचग्रहंकेशग्रहणपूर्वकं यथा तथा चुम्बनदानं येन तथोक्तं) [केशिमथनम्....] ॥6॥
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |