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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
5. गीतम्
मणिमय-मकर मनोहर-कुण्डल-मण्डित-गण्डमुदारं। अनुवाद- जिनके कपोल-युगल मणिमय मनोहर मकराकृति कुण्डलों के द्वारा सुशोभित हो रहे हैं, जिन्होंने कामिनी जनों के मनोभिलाष को पूर्ण करने में महान उदार भाव अर्थात दक्षिण नायकत्व को धारण किया है, जिन पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण ने अपनी माधुरी का विस्तार कर सुर, असुर, मुनि, मनुष्य आदि अपने श्रेष्ठ परिवार को प्रेमरस में सराबोर कर दिया है, उन श्रीकृष्ण का मुझे बरबस ही स्मरण हो रहा है। पद्यानुवाद बालबोधनी- श्रीकृष्ण के कानों में लटकने वाले कुण्डल मकराकृति के हैं, जिनसे उनके कपोलद्वय समलंकृत हैं। दक्षिण नायक हैं, पीताम्बर धारण करते हैं। नारदादि मुनि, भीष्मादि मनुष्य, प्रट्टादादि असुर तथा इन्द्रादि देवगण उनका श्रेष्ठ परिवार है। ऐसे श्रीकृष्ण का मुझे स्मरण हो रहा है ॥6॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सखि, मणिमय-मकर-मनोहर-कुण्डल-मण्डित-गण्डं (मणिमयाभ्यां मणिप्रचुराभ्यां मकराभ्यां मकराकार-मनोहर-कुण्डलाभ्यां मण्डितौ शोभितौ गण्डौ यस्य तम्) [तथा] अनुगत-मुनि-मनुज-सुरासुर-वर-परिवारम् (अनुगता: सौन्दर्यादिना आकृष्टा: मुनि-मनुज-सुरासुराणां वरा: श्रेष्ठा: परिवारा: परिग्रहा: येन तादृशम्) उदारं (महान्तम्) पीत-वसनम् (पीताम्बरम्) [हरिं] मम मन: रासे विहितविलास-मित्यादि ॥6॥
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