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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
5. गीतम्
जलद-पटल-बलदिन्दु-विनिन्दक-चन्दन-तिलक-ललाटं। अनुवाद- अपने ललाट में मनोहर चन्दन के तिलक को धारणकर नवीन जलद मण्डल में विद्यमान चञ्चल चन्द्रमा की महती शोभा को पराभूत कर अनिर्वचनीय सुषमा को धारण करने वाले एवं वर युवतियों के पीन पयोधरों के अमूल्य प्रान्त भाग को अपने सुविशाल सुदृढ़ वक्ष:स्थल से निपीड़ित करने में सतत अनुरक्त कवाटमय (किवाड़ स्वरूप) निर्दय-हृदय श्रीकृष्ण का मुझे बार-बार स्मरण हो रहा है। पद्यानुवाद बालबोधिनी- सजल बादलों के बीच चञ्चल चन्द्रमा की शोभा अत्यधिक प्रेक्षणीय होती है। श्रीकृष्ण के श्यामवर्ण का विस्तृत ललाट-पटल ही सजल मेघतुल्य है और उस पर श्वेतवर्ण का चन्दन तिलक आट्टादप्रदायी चन्द्रमा की छटाओं का भी तिरस्कार करने वाला है। रतिकाल में युवतियों के कोमल स्तनों को अपने विशाल वक्ष:स्थल से बड़ी ही निर्दयतापूर्वक मर्दन करने वाले श्रीकृष्ण का मुझे अतिशय स्मरण हो रहा है ॥5॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सखि, जलद-पटल-बलदिन्दु-विनिन्दक-चन्दन-तिलक-ललाटं (जलद-पटलेन मेघसमूहेन बलन् परिस्फुरन् य: इन्दु: चन्द्र: तस्य विनिन्दक: तिरस्कारक: चन्दनतिलक: ललाटे यस्य तादृशं) [तथा] पीन-पयोधर-परिसर-मर्दन-निर्दय-हृदय-कवाटम् (पीनयो: स्थूलयो: पयोधरयो: स्तनयो: य: परिसर: परिणाह: विस्तार इति यावत्र तस्य मर्दनाय निर्दय: हृदयकवाट: विशालं वक्ष: यस्य तादृशम् अत्र हृदयस्य दृढ़त्व-विस्तीर्णत्वाभ्यां कवाटत्वेन निरूपणम्) [मम मन: रासे विहित-विलास-मित्यादि] ॥5॥
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