गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 127

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

5. गीतम्

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चन्द्रक-चारु-मयूर-शिखण्डक-मण्डल-वलयित-केशं।
प्रचुर-पुरन्दर-धनुरनुरञ्जित-मेदुर-मुदिर-सुवेशं
रासे हरिमिह ... ... ॥2॥[1]

अनुवाद- अर्द्धचन्द्रकार से सुशोभित अति मनोहर मयूर-पिच्छ से वेष्टित केश वाले तथा प्रचुर मात्र में इन्द्रधनुषों से अनुरञ्जित नवीन जलधर पटल के समान शोभा धारण करने वाले श्रीकृष्ण का मुझे अधिक स्मरण हो रहा है।

पद्यानुवाद
चन्द्रक चारु मयूर शिखण्डित
कोमल केश वलय आमण्डित।
प्रचुर पुरन्दर धनु अनुरञ्जित
सघन मेघ-छवि वपु बहु सज्जित॥

बालबोधिनी- मोर पंख के अन्तिम भाग में बने हुए वृत्ताकार मण्डल को 'चन्द्रक' कहा जाता है। चन्द्रमा के समान यह भी आह्लाटाददायक होता है। इन्हीं मधुर पिच्छों से श्रीकृष्ण का केशपाश वलयित हो रहा है। उससे उनका श्यामवर्ण ऐसे प्रतीत हो रहा है, मानो सजल मेघ अनेक इन्द्रधनुषों से सुसज्जित हो, उन्हीं के कमनीय दिव्य विग्रह का मुझे बार-बार स्मरण हो रहा है ॥2॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखि, चन्द्रक-चारु-मयूर-शिखण्डक-मण्डल-वलयितकेशं (चन्द्रकेण अर्द्धचन्द्राकारेण चारूणां मयूरशिखण्डकानां मयूरपुच्छानां मण्डलेन वलयित: वेष्टित: केशो यस्य तादृशं। [अतएव] प्रचुरपुरन्दर-धनुरनुरञ्जित-चित्रित: मेदुर: स्निग्धो यो मुदिरो नवजलधर: तद्वत् सुशोभनो वेशो यस्य तादृशं) [रासे विहितविलासमित्यादि] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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