विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
5. गीतम्
सखी के द्वारा अपनी भर्त्सना सुनकर श्रीराधा अति दीन भाव से कहने लगी सखि! तुम ठीक कह रही हो, श्रीकृष्ण मेरा परित्याग कर दूसरी रमणियों के साथ अतिशय अनुरागयुक्त होकर विहार कर रहे हैं, तब उनके प्रति मेरा अनुराग प्रकाशित होना व्यर्थ ही है, पर मैं क्या करूँ? मुझे उनकी नर्मकेलि का अनुभव है, उनके विलासों का स्मरण हो रहा है, सखि! ये वे ही केलिवन हैं, जहाँ हमने केलिसुख प्राप्त किया था, उनके प्रति मेरी प्रबल आसक्ति है, मुझसे उनका त्याग नहीं होता। सब समय उनके गुणों का ही स्मरण होता रहता है। मेरे हृदय में उनके दोष का लेशमात्र भी भाव नहीं उठता, मुझे सदैव सन्तुष्टि रहती है। जब श्यामसुन्दर रास-रजनी में व्रजांगनाओं के साथ हास-परिहास करते हैं तब- सञ्चरदधर सुधा मधुर ध्वनि मुखरित विग्रहम् सञ्चरन्त्या अधरसुधया मधुरो ध्वनि यत्र तद् यथा स्याद् तथा मुखरिता मोहिनी वंशी येन तम्। वे जब अधरसुधा से संक्रान्त मधुर-ध्वनि करने वाली उस वंशी को बजाते हैं, जिसका मोहनकारित्व प्रख्यात है, उस समय मेरा मन अस्थिर हो जाता है, मैं अपना धैर्य खो बैठती हूँ। उनके अंगों का सौन्दर्य, चञ्चल शिरोभूषण, दोलायमान कर्णकुण्डल तथा विशेषकर गोप-युवतियों का आलिंगन चुम्बन स्मरण करते ही मैं सुधबुध खो बैठती हूँ सखि मैं क्या करूँ? ॥1॥
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |