गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 124

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

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मानवती श्रीराधा सखी के समझाये जाने पर श्रीकृष्ण के मदन-महोत्सव में सम्मिलित हो गयीं। इस मदन-उत्सव में श्रीकृष्ण सभी सखियों के प्रति समान स्नेह रखते हुए विहार कर रहे थे। जबकि श्रीराधा को यह गर्व था कि मैं उनकी सर्वश्रेष्ठा वल्लभा हूँ, नित्य सहचरी हूँ, परन्तु आज अपने प्रति विशिष्ट स्नेह प्रदर्शित न होने से श्रीराधा प्रणय-कोप के आवेश में अन्यत्र एक कुञ्ज में चली आयीं और छिपकर बैठ गयीं। ईर्ष्याकषायिता श्रीराधा को वहाँ भी कहीं शान्ति नहीं मिली। इस लताकुञ्ज के शिखर पर पुष्पों में मँडराता हुआ अलिवृन्द गुञ्जार कर रहा था। उस समय श्रीराधा अपनी मान की वेदना से पीड़ित होकर अपनी सखी से उन रहस्यात्मक बातों को कहने लगी, जिन्हें किसी के समक्ष कहा नहीं जाना चाहिए।

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द है। हरिणी छन्द का लक्षण है 'रसयुग हयै: न्सौ म्नौ स्लौ गो यदा हरिणी।' नायिका प्रौढ़ा है। रतिभाव के उद्रेकातिशय के कारण रसवदलंकार तथा अनुप्रास अलंकार हैं।

अपि सोत्कर्ष भावमयी राधा कुछ न बोल सकने की स्थिति में थीं, रहस्यमयी बातें बतलाने वाली नहीं थीं, यह 'अपि' शब्द के द्वारा घोषित है। अत: 'अपि' शब्द चमत्कारातिशय युक्त है।

गुर्ज्जरी रागेण यति तालेन गीयते ॥प्रबन्ध 5॥

प्रस्तुत श्लोक पञ्चम प्रबन्ध की पुष्पिका रूप है। दूसरे श्लोक से इसका समुचित प्रारम्भ है। यह प्रबन्ध गुर्ज्जरी-राग तथा यति-ताल से गाया जाता है ॥1॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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