गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 121

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्

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रासोल्लासभरेण विभ्रम-भृतामाभीर-वामभ्रुवा-
मभ्यर्णे परिरभ्य निर्भरमुर: प्रेमान्धया राधया।
साधु तद्वदनं सुधामयमिति व्याहृत्य गीतस्तुति-
व्याजादुद्भटर्चुम्बित: स्मितमनोहारी हरि: पातु व: ॥2॥

इति श्रीगीतगोविन्द महाकाव्ये सामोद दामोदर
नाम प्रथम: सर्ग:।[1]

अनुवाद- जिस श्रीकृष्ण के प्रेम में अन्धी होकर विमुग्धा श्रीराधा लज्जाशून्य होकर रासलीला के प्रेम में विह्नला शुभ्रा गोपांगनाओं के समक्ष ही उनके वक्ष:स्थल का सुदृढ़रूप से आलिंगन कर 'अहा नाथ' तुम्हारा वदनकमल कितना सुन्दर है, कैसी अनुपम सुधाराशिका आकर है इस प्रकार स्तुति-गान करती हुई सुचारु रूपसे चुम्बन करने लगी तथा श्रीराधा की ऐसी प्रेमासक्ति देखकर हृदय में स्वत:स्फूर्त्त आनन्द के कारण जिस श्रीकृष्ण का मुखकमल मनोहर हास्यभूषण से विभूषित होने लगा, ऐसे हे श्रीकृष्ण! आप सबका मंगलविधान करें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अधुना कविर्वसन्तरासमनुवर्णयन् शारदीय-रासकृत-श्रीराधाकृष्ण-विलासमनुस्मरयन् तद्वर्णनरूपया आशिषा भक्तान् संवर्द्धयति]-प्रेमान्धया (अनुरागभरेण ज्ञानशून्यया) राधया रासोल्लासभरेण (रासोत्सवानन्दातिशयेन) विभ्रमभृताम् (हावभाव-समन्विताम्) आभीर-वामभ्रुवाम् (गोप-ललनानां) [मध्ये] अभ्यर्णं (समीपे) निर्भरं (गाढ़ं यथा तथा) उर: (वक्ष:) परिरभ्य (आश्लिष्य), त्वद्रवदनं (तव मुखं साधु) सुधामयम् (पीयूषपूर्णम्) इति गीतस्तुतिव्याजात् (गानप्रशंसाच्छलेन) व्याहृत्य (उक्त्वा) उर्टचुम्बित: (प्रगाढ़चुम्बित:) [अतएव] स्मितमनोहारी (स्मितेन मनोहरणशील:) हरि: व: (युष्मान्) [भक्तामिति भाव:] पातु॥ [अतएव सर्गो यं श्रीराधा-विलासानुभवेन सम्यङ्रमोदेन सह वर्त्तमानो दामोदरो यत्र स इति सामोद-दामोदर:प्रथम:] ॥10॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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