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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
श्रीश्रीगुरु-गौरांगौ जयत:
प्रस्तावना(ट)गुरु होने के लिए सखीभाव अवलम्बन करना होता है और श्रीकृष्ण को पाने के लिए सखी भावा पन्न सद्गुरु का आश्रय ग्रहण करना होता है। यही अखिल श्रुतियों का सार है। श्रुतियों ने कहा है- तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासु: श्रेय उत्तमम्। अर्थात्र ब्रह्म को जानने के लिए ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु का आश्रय करना होता है। नैमिषारण्य नामक पुण्यारण्य में श्रीसूत गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत का पाठ करते समय श्रीमद्भागवत को ही अखिल श्रुतिसार बताया है। श्रीमद्भागवत का सार रासलीला है। सारदर्शी कविवर श्रीजयदेव गोस्वामी ने कृपापरवश होकर उसी सारादपि सार श्रीमद्भागवतोक्त श्री रासलीला को निचोड़कर गागर में सागर भरकर कलिजीवों की स्वत: प्रवृत्ति के लिए श्रीगीतगोविन्द नामक काव्यामृत को प्रकाश किया है। श्रीशुकदेव गोस्वामी ने परीक्षित महाराज के प्रश्न के उत्तर में कहा था- अनुग्रहाय भक्तानां मानुषं देहमाश्रित:। अर्थात भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए इस प्रकार की लीलाएँ प्रकाश करते हैं। श्रृंगार रस-प्रिय अभक्त भी इसे सुनकर क्रमश: श्रीकृष्ण-परायण होंगे। इसके द्वारा यह समझा जा सकता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भक्त-अभक्त सभी के प्रति कृपावश होकर इस प्रकार श्रृंगार प्रिय लीला को धरणी तल पर प्रकट की है। महर्षि वेदव्यास ने सबके प्रति कृपा-परवश होकर उसको लिपिबद्ध किया और परमभक्त श्रीशुकदेव गोस्वामी ने भी कृपा-परवश होकर ही पृथ्वी पर इसका प्रचार किया है। उसके पश्चात् कविवर जयदेव गोस्वामी ने भी कृपा-परवश होकर और भी मधुरतर काव्य के आकार में उसे प्रकाशित किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भागवत 11/3/21)
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