गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 116

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्

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श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि कामपि रमयति रामां।
पश्यति सस्मित-चारुतरामपरामनुगच्छति बामां
[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥7॥][1]

अनुवाद- श्रृंगार-रस की लालसा में श्रीकृष्ण कहीं किसी रमणी का आलिंगन करते हैं, किसी का चुम्बन करते हैं, किसी के साथ रमण कर रहे हैं और कहीं मधुर स्मित सुधा का अवलोकन कर किसी को निहार रहे हैं तो कहीं किसी मानिनी के पीछे-पीछे चल रहे हैं।

पद्यानुवाद
किसी सखीको भुजमें भरते और किसीसे रसते।
गीले कर फिर किसी अधरको, किसी आँखमें हँसते॥
कहीं किसीके पीछे पीछे छायासे हरि चलते।
वृन्दावन के लताकुञजकी क्रीड़ा कहते कहते॥

बालबोधिनी- रासक्रीड़ा में श्रीकृष्ण विविध रूप धारण करके क्रीड़ोन्मुख नायिकाओं के साथ विविध श्रृंगारिक चेष्टाओं को किया करते हैं। सम्भोग सुख की लालसा के वशीभूत होकर श्रीकृष्ण कभी किसी कामिनी का आलिंगन करते हैं तो कभी किसी का चुम्बन। कहीं किसी के साथ विहार कर रहे हैं तो कहीं सरस रसपूर्ण नेत्रों से किसी वर सुन्दरी का सतृष्ण भाव से निरीक्षण कर रहे हैं और कभी विभ्रम के कारण किसी वरांगना को 'श्रीराधा' कहकर सम्बोधित कर रहे हैं, जिससे वह मानिनी हो जाती है। रति की भावना तीव्र होने पर चेष्टा विशेष के साथ उसका अनुगमन करते हैं। मानिनी गोपी के रति परान्मुख होने पर बार-बार अनुनय विनय करते हुए उसके क्रोध (रोष) को विगलित करने का प्रयास करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखि, [हरि:] कामपि (तरुणीं) श्लिष्यति (आलिंगति),; कामपि चुम्बति; कामपि रामां रमयति (क्रीड़ाकौतुकेन सुखयति); सस्मित-चारुतराम् (सस्मिता अतएव चारुतरा ताम् मृदुमधुर-हासेन अतिमनोहरामित्यर्थ:) [कामपि] पश्यति; [तथा] अपरां वामाम्र (प्रतिकूलाम्, प्रणयकोपवशात् अभिमानभरेण स्थानान्तर-गामिनीम्) अनुगच्छति ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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