गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 115

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्

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करतल-ताल-तरल-वलयावलि-कलित-कलस्वन-वंशे।
रासरसे सहनृत्यपरा हरिणा युवति: प्रशंससे
[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥6॥][1]

अनुवाद- हाथों की ताली के तान के कारण चञ्चल कंगण-समूह से अनुगत वंशीनाद से युक्त अद्भुत स्वर को देखकर श्रीहरि रासरस में आनन्दित नृत्य-परायणा किसी युवती की प्रशंसा करने लगे।

पद्यानुवाद
जिसकी ताल समय कर-चूड़ी वंशी-स्वर में खनकी।
रास-सखी की स्तुति श्रीहरि ने जी भर भर कर की॥

बालबोधिनी- सखी श्रीराधा जी से कह रही है कि रासलीला में श्रीकृष्ण के साथ नृत्य करती हुई कोई युवती तान, मान, लय के साथ हाथों से ताली बजाने लगी, जिससे उसकी चूड़ियाँ एक दूसरे से टकराकर अभिघात के कारण मधुर ध्वनि प्रकट करने लगीं और इस प्रकार वलय की खनकाहट और वंशीध्वनि मिलकर अद्भुत मधुर नाद प्रस्तुत करने लगी, जिसे सुनकर श्रीकृष्ण पुन: पुन: उस रमणी की प्रशंसा करने लगे ॥6॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखि, हरिणा (श्रीकृष्णेन) करतल-ताल-तरल-वलयावलि-कलित-कलम्बने-वंशे (करतलयो: पाणितलयो: तालेन ध्वनिविशेषेण तरला चञ्चला या वलयावलि: कप्रणश्रेणि: तया कलित: अनुपूरित: कलम्बन: मधुरस्वरो वंश: वाद्यविशेष: यस्मिन् तादृशे) रासरसे (रासोत्सवे) सहनृत्यपरा (सहनृत्यन्ती) काचित्र युवति: प्रशंश से (साधु साध्विति प्रशंसिता) ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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