गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 112

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्

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कापि विलास-विलोल-विलोचन-खेलन-जनित-मनोजं।
ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदन-वदन-सरोजम्र
[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥3॥][1]

अनुवाद- देखो सखि! श्रीकृष्ण जिस प्रकार निज अभिराम मुखमण्डलकी श्रृंगार रस भरी चंचल नेत्रों की कुटिल दृष्टि से कामिनियों के चित्त में मदन विकार करते हैं, उसी प्रकार यह एक वरांगना भी उस वदनकमल में अश्लिष्ट (संसक्त) मकरन्द पान की अभिलाषा से लालसान्वित होकर उन श्रीकृष्ण का ध्यान कर रही है।

पद्यानुवाद
कोई लास लोल लोचनसे बने सहज मतवाले।
मधुसूदनके मुख सरसिजमें ठगी, दीठ-मधु ढाले

बालबोधिनी- मुग्धानायिका की चेष्टाओं का वर्णन करती हुई सखी कह रही है वह नायिका श्रीकृष्ण के मुख कमल का ध्यान कर रही है। श्रीश्यामसुन्दर प्रेमविलास के कारण विलसित अपने चंचल नेत्रों से दृष्टि डालकर वर रमणियों के मदनविकार को अभिवर्द्धित कर रहे हैं और अत्यधिक आनन्द का अनुभव मन-ही-मन कर रहे हैं। मुग्धा नायिका में लज्जा का प्राचुर्य होता है, अतएव उसकी श्रृंगारिक चेष्टाएँ बड़ी ही मर्यादित होती हैं ॥3॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखि, कापि मुग्धवधू: (नवीना रमणी) विलास-विलोल-विलोचन-खेलन-जनित-मनोजम् (विलासेन विलोलयो: चटुलयो: विलोचनयो: नयनयो: खेलनेन चालनभ या कटाक्षपातेनेत्यर्थ: जनित: मनोज: काम: यत्र तत् यथास्यात् तथा) मधुसूदन-वदन-सरोजम् (श्रीहरिमुख-पंकजम्) अधिकं (अतिमात्रं) ध्यायति (चिन्तयति निरीक्षते भ्रमरवत् रसविशेषान्वेषणपर इति श्लिष्ट-मधुसूदन-पदोपन्यास:) [अन्यत्र पूर्ववत्र] ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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