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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्
कापि विलास-विलोल-विलोचन-खेलन-जनित-मनोजं। अनुवाद- देखो सखि! श्रीकृष्ण जिस प्रकार निज अभिराम मुखमण्डलकी श्रृंगार रस भरी चंचल नेत्रों की कुटिल दृष्टि से कामिनियों के चित्त में मदन विकार करते हैं, उसी प्रकार यह एक वरांगना भी उस वदनकमल में अश्लिष्ट (संसक्त) मकरन्द पान की अभिलाषा से लालसान्वित होकर उन श्रीकृष्ण का ध्यान कर रही है। पद्यानुवाद बालबोधिनी- मुग्धानायिका की चेष्टाओं का वर्णन करती हुई सखी कह रही है वह नायिका श्रीकृष्ण के मुख कमल का ध्यान कर रही है। श्रीश्यामसुन्दर प्रेमविलास के कारण विलसित अपने चंचल नेत्रों से दृष्टि डालकर वर रमणियों के मदनविकार को अभिवर्द्धित कर रहे हैं और अत्यधिक आनन्द का अनुभव मन-ही-मन कर रहे हैं। मुग्धा नायिका में लज्जा का प्राचुर्य होता है, अतएव उसकी श्रृंगारिक चेष्टाएँ बड़ी ही मर्यादित होती हैं ॥3॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सखि, कापि मुग्धवधू: (नवीना रमणी) विलास-विलोल-विलोचन-खेलन-जनित-मनोजम् (विलासेन विलोलयो: चटुलयो: विलोचनयो: नयनयो: खेलनेन चालनभ या कटाक्षपातेनेत्यर्थ: जनित: मनोज: काम: यत्र तत् यथास्यात् तथा) मधुसूदन-वदन-सरोजम् (श्रीहरिमुख-पंकजम्) अधिकं (अतिमात्रं) ध्यायति (चिन्तयति निरीक्षते भ्रमरवत् रसविशेषान्वेषणपर इति श्लिष्ट-मधुसूदन-पदोपन्यास:) [अन्यत्र पूर्ववत्र] ॥3॥
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