गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 103

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्

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अद्योत्संग-वसद्भुज-कवल-क्लेशादिवेशाचलं
प्रालेय-प्लवनेच्छयानुसरति श्रीखण्डशैलानिल:
किंच स्निग्ध-रसाल-मौलि-मुकुलान्यालोक्य हर्षोदया-
दुन्मीलन्ति कुहु: कुहूरिति कलोत्ताला: पिकानां गिर: ॥2॥[1]

अनुवाद- अरी सखि! सुना है श्रीखण्डशैल (मलय पर्वत) में बहुत से सर्प निवास करते हैं, वहाँ का पवन भुजंगों के विष से निश्चित ही जर्ज्जर हो गया है, इससे ऐसा लगता है कि वह उस विष ज्वाला से जलकर हिम सलिल में स्नान करने के लिए हिमालय की ओर प्रवाहित होने लगा है।

देखो! देखो! सखि! मधुर, मनोहर, स्निग्ध रसालमौलि मुकुलों (मंजरियों) को देखकर हर्ष से विभोर कोकिल कुहु-कुहु की मधुर वाणी में उच्चस्वरसे कूजन कर रही है।

पद्यानुवाद
सतत सर्प पीड़ा से तापित, मलय पवन हिमदेश
बहनेको आतुर रहता है, निशिदिन कोमल वेश।
मधुर आमके वोरों से या बढ़ता जाता मिलने
जो कोकिलकी कुहु कुहु सुन मदसे लगते खिलने

बालबोधिनी- प्रस्तुत श्लोक में सखी ने श्रृंगार रस के दोनों विभावों का चित्रण किया है। इस मधुमास में मलयाचल की वायु हिमदेश की ओर आ रही है। रात दिन मलयगिरि में चन्दन के वृक्षों पर जहरीले साँप अवस्थित रहते हैं। इसी कारण वह हवा हिमालय की ओर प्रस्थान कर रही है। सर्पों के दंशन के कारण मलयाचल में सन्ताप उत्पन्ना हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने उस सन्ताप के कारण ही हवा हिमालय की शीत हवा का आनन्द प्राप्त करने के लिए हिमदेश को जा रही है। इस समय रसाल तरुवरों में मंजरियाँ भी उद्भुत हो जाती हैं। इन आम की बौरों को देखकर कोकिल समुदाय हर्ष से आट्टादित होकर उच्च स्वर से कुहु-कुहु का स्वर आलाप करने लगा है। इस तरह की उन्मादिनी प्रोन्मादिनी वेला में श्रीकृष्ण से तुम्हारा डरना उचित नहीं है, राधे!

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल विक्रीड़ित छन्द, अनुप्रास तथा उपमा अलंकार, वैदर्भी रीति तथा विप्रलम्भ श्रृंगार का सूचक रति नामक स्थायी भाव है ॥2॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अद्य (अधुना) श्रीखण्डशैलानिल: (श्रीखण्डशैलस्य मलयाचलस्य अनिल: वायु:) उत्संग-वसद्रभुजंग-कवल-क्लेशात् इव (उत्संगे क्रोड़े वसन्त: ये भूजंगा: सर्पा: तेषां कवलेन ग्रासेन य: क्लेश: तस्मात्); [भुजंगा: पवनाशना: इति लोके प्रसिद्धिमेव तस्य; भुजड्ग़कवलेन विषव्याप्तदेहत्वादिति भाव: प्रालेय-प्लवनेच्छया (प्रालेयेषु हिमेषु प्लवनेच्छया अवगाहनाशया विषज्वालाया: शान्तये इति भाव:) ईशाचलं (ईशस्य महादेवस्य अचल: पर्वत: हिमाचलस्तं) अनुसरति (गच्छति); [चन्दनतरु कोटरस्थ-विषधर-कवल-सन्तप्तोवायु: हिमस्नानेच्छया हिमाचलं यातीव; वसन्ते दक्षिणदिर्गवर्त्तिनो मलयाचलात् वायेरुत्तरत्र गमनात्र उत्तरे च हिमाचलस्य अवस्थानात् इयमुत्प्रेक्षा। [किंच] स्निग्ध-रसाल-मौलिमुकुलानि (स्निग्धानि कोमलानि रसालानां चूततरूणां मौलिषु शिखरेषु यानि मुकुलानि तानि) आलोक्य (दृष्ट्रवा) हर्षोदयात्र (आनन्दोदयात्) पिकानां (कोकिलानां) कुहु: कुहूरिति कलोत्ताला: (कला अव्यक्तमधुरा उत्ताला अत्युच्चा:), गिर: (ध्वनय:) उन्मीलन्ति (उद्रगच्छन्ति) ॥2॥

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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