गीता 3:35

गीता अध्याय-3 श्लोक-35 / Gita Chapter-3 Verse-35

प्रसंग-


मनुष्य का स्वधर्म पालन करने में ही कल्याण है, पर धर्म का सेवन और निषिद्ध कर्मों का आचरण करने में सब प्रकार से हानि है। इस बात को भली-भाँति समझ लेने के बाद भी मनुष्य अपने इच्छा, विचार और धर्म के विरुद्ध पापाचार में किस कारण प्रवृत्त हो जाते हैं- इस बात के जानने की इच्छा से अर्जुन[1] पूछते हैं-


श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ॥35॥



अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है ॥35॥

One’s own duty, though devoid of merit, is preferable to the duty of another well performed. Even death in the performance of one’s own duty brings blessedness; another’s duty is fraught with fear.(35)


स्वनुष्ठितात् = अच्छी प्रकार आचरण किये हुए; परधर्मात् = दूसरे के धर्म से विगुण: = गुणरहित; (अपि) = भी; स्वधर्म: = अपना धर्म; श्रेयान् = अति उत्तम है; स्वधर्मे = अपने धर्म में; निधनम् = मरना (भी); श्रेय: = कल्याण कारक है (और); परधर्म: =दूसरे का धर्म; भयावह: = भय को देने वाला है।



अध्याय तीन श्लोक संख्या
Verses- Chapter-3

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14, 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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