गीता 18:57

गीता अध्याय-18 श्लोक-57 / Gita Chapter-18 Verse-57

प्रसंग-


इस प्रकार भक्ति प्रधान कर्मयोगी की महिमा का वर्णन करके अब अर्जुन[1] को वैसा बनने के लिये आज्ञा देते हैं-


चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर: ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित: सततं भव ॥57॥



सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धि रूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो ॥57॥

Mentally resigning all your duties to Me, and taking recourse to Yoga. in the form of even-mindedness, be solely devoted to Me and constantly give your mind to Me. (57)


सर्वकर्माणि = सब कर्मो को ; चेतसा = मनसे ; मयि = मेरे में ; संन्यस्य = अर्पण करके ; मत्पर: = मेरे परायण हुआ ; बुद्धियोगम् = समत्वबृद्धिरूप निष्काम कर्मयोग को ; उपाश्रित्य = अवलम्बन करके = सततम् = निरन्तर ; मच्चित्त: = मेरे में चित्तवाला ; भव = हो



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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