गीता 13:14

गीता अध्याय-13 श्लोक-14 / Gita Chapter-13 Verse-14

प्रसंग-


ज्ञेयस्वरूप परमात्मा को सब ओर से हाथ, पैर आदि समस्त इन्द्रियों की शक्तिवाला बतलाने के बाद अब उसके स्वरूप की अलौकिकता का निरूपण करते हैं –


सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥14॥



वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है, तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है ॥14॥

Though perceiving all sense-objects it is, really speaking, devoid of all senses. Nay, though unattached, it is the sustainer of all nonetheless; and though attributeless, it is the enjoyer of qualities (the three modes of prakrti). (14)


सर्वेन्द्रियगुणाभासम् = संपूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जाननेवाला है परन्तु वास्तव में) ; सर्वेन्द्रियविवर्जितम् = सब इन्द्रियों से रहित है ; च = तथा ; असक्तम् = आसक्तिरहित (और) ; निर्गुणम् = गुणों से अतीत (हुआ) ; एव = भी (अपनी योगमाया से) ; सर्वभृत् = सबको धारणपोषण करने वाला ; च = और ; गुणभोक्तृ = गुणों को भोगनेवाला है ;



अध्याय तेरह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-13

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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