गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौदहवां प्रकरण
अर्जुन को जो जो विषय पहले से ही मालूम थे, उन्हें फिर से विस्तारपूर्वक कहने की कोई आवश्यकता नहीं थी। उसका मुख्य प्रश्न तो यही था, कि मैं लड़ाई का घोर कृत्य करूँ या न करूँ, और करूँ भी तो किस प्रकार करूँ? जब श्रीकृष्ण अपने उत्तर में एकाध युक्ति बतलाते थे, तब अर्जुन उसपर कुछ न कुछ आक्षेप किया करता था। इस प्रकार के प्रश्नोत्तररूपी सम्वाद में गीता का विवेचन स्वभाव ही से कहीं संक्षिप्त और कहीं द्विरूक्त हो गया है। उदाहरणार्थ, त्रिगुणात्मक प्रकृति के फैलाव का वर्णन कुछ थोड़े भेद से दो जगह है[1]; और स्थितप्रज्ञ, भगवद्भक्त, त्रिगुणातीत तथा ब्रह्मभूत इत्यादि की स्थिति का वर्णन एकसा होने पर भी, भिन्न भिन्न दृष्टियों से प्रत्येक प्रसंग पर बार-बार किया गया है। इसके विपरीत ‘यदि अर्थ और काम धर्म से विभक्त न हों तो वे ग्राह्य हैं’–इस तत्त्व का दिग्दर्शन गीता में केवल ‘’धर्माविरुद्ध:कामोऽस्मि ‘’[2] इसी एक वाक्य में कर दिया गया है। इसका परिणाम यह होता है, कि यद्यपि गीता में सब विषयों का समावेश किया गया है, तथापि गीता पढ़ते समय उन लोगों के मन में कुछ गड़बड़ सी हो जाती है, जो श्रौतधर्म, स्मार्तधर्म, भागवतधर्म, सांख्यशास्त्र, पूर्वमीमांसा, वेदान्त, कर्म-विपाक इत्यादि के उन प्राचीन सिद्धान्तों की परम्परा से परिचित नहीं हैं, कि जिनके आधार पर गीता के ज्ञान का निरूपण किया गया है। और जब गीता के प्रतिपादन की रीति ठीक ठीक ध्यान में नहीं आती, तब वे लोग कहने लगते हैं कि गीता मानो बाजीगर की झोली है, अथवा शास्त्रीय पद्वति के प्रचार के पूर्व गीता की रचना हुई होगी, इसलिये उसमें ठौर ठौर पर अधूरापन और विरोध देख पड़ता है, अथवा गीता का ज्ञान ही हमारी बुद्धि के लिये अगम्य है! संशय को हटाने के लिये यदि टीकाओं का अवलोकन किया जाय, तो उनसे भी कुछ लाभ नहीं होता; क्योंकि वे बहुधा भिन्न भिन्न सम्प्रदायनुसार बनी हैं। इसलिये टीकाकारों के मतों के परस्पर विरोधों की एक-वाक्यता करना असम्भव सा हो जाता है और पढ़नेवाले का मन अधिकाधिक घबराने लगता है। इस प्रकार के भ्रम में पढ़े हुए कई सुप्रसिद्ध पाठकों को हमने देखा है कि इस अड़चन को हटाने के लिये हमने अपनी बुद्धि के अनुसार गीता के पतिपाद्य विषयों का शास्त्रीय क्रम बांध कर अब तक विवेचन किया है। अब यहाँ इतना और बतला देना चाहिये, कि ये ही विषय श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्भाषण में, अर्जुन के प्रश्नों का शंकाओं के अनुरोध से, कुछ न्यूनाधिक होकर कैसे उपस्थित हुए हैं। इससे यह विवेचन पूरा हो जायेगा और अगले प्रकरण में सुगमता से सब विषयों का उपसंहार कर दिया जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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