गीता रहस्य -तिलक पृ. 435

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तेरहवां प्रकरण

इसलिये भगवान् न सब लोगों को निश्चित रीति से यही कहा है, कि ‘न केवल मृत्‍यु के समय ही, किन्‍तु सारे जीवन भर सदैव मेरा स्‍मरण मन में रहने दो और स्‍वधर्म के अनुसार अपने सब व्‍यवहारों को परमेश्वरार्पण बुद्धि से करते रहो, फिर चाहे तुम किसी भी जाति के रहो तो भी तुम कर्मों को करते हुए ही मुक्‍त हो जाओगे ‘[1] इस प्रकार उपनिषदों का ब्रह्मात्‍मैक्‍यज्ञान आबालवृद्ध सभी लोगों के लिये सुलभ तो कर दिया गया है; परंतु ऐसा करने में न तो व्‍यवहार का लोप होने दिया है, और न वर्ण, आश्रम, जाति-पांति अथवा स्‍त्री-पुरुष आदि का कोई भेद ही रखा गया है। जब हम गीता-प्रतिपादित भक्तिमार्ग की इस शक्ति अथवा समता की ओर ध्‍यान देते हैं, तब गीता के अन्तिम अध्‍याय में भगवान् ने प्रतिज्ञापूर्वक गीताशास्‍त्र का जो उपसंहार किया है उसका मर्म प्रगट हो जाता है। वह ऐसा है:-‘’सब धर्म छोड़ कर मेरे अकेले की शरण में आ जा, मैं तुझे सब पापों से मुक्‍त करूँगा, तू घबराना नहीं।‘’ यहाँ पर धर्म शब्‍द का उपयोग इसी व्‍यापक अर्थ में किया गया है, कि सब व्‍यवहारों को करते हुए भी पाप-पुण्‍य से अलिप्‍त रहकर परमेश्‍वरप्राप्तिरूपी आत्‍मश्रेय जिस मार्ग के द्वारा सम्‍पादन किया जा सकता है वही धर्म है। अनुगीता के गुरुशिष्‍य–सम्‍वाद में ऋषियों ने ब्रह्मा से यह प्रश्‍न किया[2], कि अहिंसाधर्म सत्‍यधर्म, व्रत तथा उपवास, ज्ञान, यज्ञ-याग, दान, कर्म, संन्‍यास आदि जो अनेक प्रकार के मुक्ति के साधन अनेक लोग बतलाते हैं , उनमें से सच्‍चा साधन कौन है?

और शान्तिपर्व के[3] उंच्‍छवृत्ति-उपाख्‍यान में भी यह प्रश्‍न है कि गार्हस्‍थ धम, वानप्रस्‍थ-धर्म, राजधर्म, मातृपितृ-सेवाधर्म, क्षत्रियों का रणांगण में मरण, ब्राह्मणों का स्‍वाध्‍याय, इत्‍यादि जो अनेक धर्म या स्‍वर्गप्राप्ति के साधन शास्‍त्रों ने बतलाये हैं, उनमें से ग्राहय धर्म कौन हैं? ये भिन्‍न भिन्‍न धर्ममार्ग या धर्म दिखने में तो परस्‍पर-विरुद्ध मालूम होते हैं, परन्‍तु शास्‍त्रकार इन सब प्रत्‍यक्ष मार्गों की योग्‍यता को एकसी समझते हैं; क्‍योंकि समस्‍त प्राणियों में साम्‍यबुद्धि रखने का जो अन्तिम साध्‍य है वह इनमें से किसी भी धर्म पर प्रीति और श्रद्धा के साथ मन को एकाग्र किये बिना प्राप्‍त नहीं हो सकता। तथापि, इन अनेक मार्गों की, अथवा प्रतीक उपासना की, झंझट में फँसने से मन घबरा जा सकता है। इसीलिये अकेले अर्जुन को ही नहीं, किनतु उसे निमित्त करके सब लोगों को, भगवान् इस प्रकार निश्चित आश्‍वासन देते हैं कि इन अनेक धर्म-मार्गों को छोड़ कर ‘’तू केवल मेरी शरण में आ, मैं तुझे समस्‍त पापों से मुक्‍त कर दूँगा; डर मत।‘’ साधु तुकाराम भी सब धर्मों का निरसन करके अन्‍त में भगवान् से यही मांगते हैं कि:-

चतुराई चेतना सभी चूल्‍हे में जावे, बस मेरा मन एक ईश चरणाश्रय पावे। आग लगे आचार-विचारों के उपचय में, उस विभु का विश्‍वास सदा दृढ़ रहे हृदय में।

निश्‍चयपूर्वक उपदेश की या प्रार्थना की यह अन्तिम सीमा हो चुकी। श्रीमद्भगवद्गीता रूपी सोने की थाली में यह भक्तिरूपी अन्तिम कौर है-यही प्रेमग्रास है। इसे पा चुके, अब आगे चलिये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 9. 26-28 और 30-34 देखो
  2. अश्‍व. 49
  3. 354

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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