गीता रहस्य -तिलक पृ. 408

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तेरहवां प्रकरण

वहाँ वहाँ प्राण, मन इत्‍यादि सगुण और केवल अव्‍यक्‍त वस्‍तुओं ही का निर्देश न कर उनके साथ साथ सूर्य ( आदित्‍य ) अन्‍न इत्‍यादि सगुण और व्‍यक्‍त पदार्थों की उपासना भी कही गई है[1]। श्वेताश्वतरोपनिषद में तो ‘ईश्‍वर’ का लक्षण इस प्रकार बतला कर, कि ‘’मायां तु प्रकृतिं विद्यात् मायिनं तु महेश्‍वरम्’’[2]– अर्थात् प्रकृति ही को माया और इस माया के अधिपति को महेश्‍वरम्‌ जानो-आगे गीता ही के समान[3] सगुण ईश्‍वर की महिमा का इस प्रकार वर्णन किया है कि ‘’ज्ञात्‍वा देवं मुच्‍यते सर्वपाशै: ‘’ अर्थात् इस देव को जान लेने से मनुष्‍य सब पाशों से मुक्‍त हो जाता है[4]। यह जो नाम-रूपात्‍मक वस्‍तु उपास्‍य परब्रह्म के चिन्‍ह, पहचान, अवतार, अंश या प्रतिनिधि के तोर पर उपासना के लिये आवश्‍यक है, उसी को वेदान्तशास्त्र में ‘प्रतीक’ कहते हैं। प्रतीक ( प्रति+इक ) शब्‍द का धात्‍वर्थ यह है- प्रति=अपनी ओर, इक=झुका हुआ; जब किसी वस्‍तु का कोई एक भाग पहले गोचर हो और फिर आगे उस वस्‍तु का कोई एक भाग पहले गोचर हो और फिर आगे उस वस्‍तु का ज्ञान हो, तब उस भाग को प्रतीक कहते हैं। इस नियम के अनुसार, सर्वव्‍यापी परमेश्‍वर का ज्ञान होने के लिये उसका कोई भी प्रत्‍यक्ष चिन्‍ह, अंश रूपी विभूति या भाग ‘प्रतीक’ हो सकता है।

उदाहरणार्थ महाभारत में ब्राह्मण और ब्‍याध का जो संवाद है उसमें ब्‍याध ने ब्राह्मण को पहले बहुत सा अध्‍यात्‍मज्ञान बतलाया; फिर ‘’हे द्विजवर! मेरा जो प्रत्‍यक्ष धर्म है उसे अब देखो ‘’-‘’प्रत्‍यक्षं मम यो धर्मस्‍तं च पश्‍य द्विजोत्‍तम ‘’[5] ऐसा कहकर उस ब्राह्मण को वह व्‍याध अपने वृद्ध मातापिता के समीप ले गया और कहने लगा-यही मेरे ‘प्रत्‍यक्ष’ देवता हैं। इसी अभिप्राय को मन में रख कर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने व्‍यक्‍त स्‍वरूप की उपासना बतलाने के पहले गीता में कहा है–

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्‍तमम्।
प्रत्‍यक्षावगमं धर्मे सुसुखं कर्तुमव्‍ययम्।।

अर्थात्, यह भक्तिमार्ग ‘’सब विद्याओं में और गुह्यों में श्रेष्‍ठ (राजविद्या और राजगुह्य ) है; यह उत्‍तम, पवित्र, प्रत्‍यक्ष देख पड़नेवाला, धर्मानुकूल, सुख से आचरण करने योग्‍य और अक्षय है ‘’[6]। इस श्‍लोक में राजविद्या और राजगुह्य, दोनों सामायिक शब्‍द हैं; इनका विग्रह यह है-‘विद्यानां राजा’ और ‘गुह्यानां राजा’ ( अर्थात् विद्याओं का राजा और गुह्यों का राजा ); और जब समास हुआ तब संस्‍कृत व्‍याकरण के नियमानुसार ‘राज’ शब्‍द का उपयोग पहले किया गया। परन्‍तु इसके बदले कुछ लोग ‘राज्ञां विद्या’ ( राजाओं की विद्या ) ऐसा विग्रह करते हैं और कहते हैं, कि योगवासिष्‍ठ[7] मे जो वर्णन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तै. 3. 2. 6; छां. 7
  2. 4. 10
  3. गी. 10. 3
  4. 4. 16
  5. वन. 213. 3
  6. गी. 9. 2
  7. 2. 11. 16-18

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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