गीता रहस्य -तिलक पृ. 407

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तेरहवां प्रकरण

इस प्रश्‍न का विचार उपर्युक्‍त रीति से करने पर जान पड़ेगा, कि यद्यपि परमेश्‍वर का श्रेष्‍ठ स्‍वरूप अनादि, अनन्त, अनिर्वाच्‍य, अचिन्‍त्‍य और ‘नेति नेति’ है, तथापि वह निर्गुण, अज्ञेय और अव्‍यक्‍त भी है, और जब उसका अनुभव होता है तब उपास्‍य-उपासकरूपी द्वैत-भाव शेष नहीं रहता, इसलिये उपासना का आरम्‍भ वहाँ से नहीं हो सकता। वह तो केवल अन्तिम साध्‍य है-साधन नहीं; और तद्रूप होने की जो अद्वैत स्थिति है उसकी प्राप्ति के लिये उपासना केवल एक साधन है या उपाय है। अतएव, इस उपासना में जिस वस्‍तु को स्‍वीकार करना पड़ता है उसका सगुण होना अत्‍यन्‍त आवश्‍यक है। सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्‍यापी और निराकार ब्रह्मस्‍वरूप वैसा अर्थात् सगुण है। परन्‍तु वह केवल बुद्धिगम्‍य और अव्‍यक्‍त अर्थात् इन्द्रियों को अगोचर होने के कारण उपासना के लिये अत्‍यन्‍त क्लेशमय है। अतएव प्रत्‍येक धर्म में यही देख पड़ता है कि इन दोनों परमेश्‍वर-स्‍वरूपों की अपेक्षा जो परमेश्‍वर अचिन्‍त्‍य, सर्वसाक्षी, सर्वव्‍यापी और सर्वशक्तिमान् जगदात्‍मा होकर भी हमारे समान हम से बोलेगा, हम लोग ‘अपना’ कह सकेंगे, जिसे हमारे सुख-दु:खों के साथ सहानुभूति होगी किंवा जो हमारे अपराधों को क्षमा करेगा; जिसके साथ हम लोगों में यह प्रत्‍यक्ष सम्‍बन्‍ध उत्‍पन्‍न हो कि ‘हे परमेश्‍वर! मैं तेरा हूँ, और तू मेरा है,’ जो पिता के समान मेरी रक्षा करेगा और माता के समान प्‍यार करेगा; अथवा जो ‘’गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्’’[1] है-

अर्थात् जिसके विषय में, मैं यह कह सकूँगा कि ‘ तू मेरी गति है, तू मेरा पोषण-कर्त्‍ता है, तू मेरा स्‍वामी है, तू मेरा साक्षी है, तू मेरा विश्रामस्‍थान है, तू मेरा अन्तिम आधार है, तू मेरा सखा है, और ऐसा कहकर बच्‍चों की नाईं प्रेम-पूर्वक तथा लाड़ से जिसके स्‍वरूप का आकलन मैं कर सकूंगा-ऐसे सत्‍यसंकल्‍प, सकलैश्‍वर्य-सम्‍पन्‍न, दयासागर, भक्‍तवत्‍सल, परमपवित्र,परमउदार, परमकारुणिक, परमपूज्‍य, सर्वसुन्‍दर सकलगुणनिधान, अथवा संक्षेप में कहें तो ऐसे लाड़ले सगुण, प्रेमगम्‍य और व्‍यक्‍त यानी प्रत्‍यक्ष-रूपधारी सुलभ परमेश्‍वर ही के स्‍वरूप का सहारा मनुष्‍य ‘भक्तिमार्ग के लिये’ स्‍वभावत: लिया करता है। जो परब्रह्म मूल में अचिनत्‍य और ‘एकमेवाद्वितीयम् ‘है उसके उक्‍त प्रकार के अन्तिम दो स्‍वरूपों को ( अर्थात् प्रेम, श्रद्धा आदि मनोमय नेत्रों से मनुष्‍य को गोचर होने वाले स्‍वरूपों को) ही वेदान्‍तशास्‍त्र की परिभाषा में ’ईश्‍वर‘ कहते हैं। परमेश्‍वर सर्वव्‍यापी हो कर भी मर्यादित क्‍यों हो गया? इस‍का उत्‍तर प्रसिद्ध महाराष्‍ट्र साधु तुकाराम ने एक पद्य में दिया है, जिसका आशय यह है–

रहता है सर्वत्र ही व्‍यापक एक समान।
पर निज भक्‍तों के लिये छोटा है भगवान्।।

यही सिद्धान्‍त वेदान्‍तसूत्र में भी दिया गया है[2]। उपनिषदों में भी जहाँ जहाँ ब्रह्म की उपासना का वर्णन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 9. 17. और 18
  2. 1. 2. 7

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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