गीता रहस्य -तिलक पृ. 406

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तेरहवां प्रकरण

सारांश, अव्‍यक्‍तोपासना की दृष्टि से ज्ञान एक बार साधन हो सकता है, और दूसरी बार ब्रह्मात्‍मैक्‍य के अपरोक्षानुभव की दृष्टि से उसी ज्ञान को निष्‍ठा यानी सिद्धावस्‍था की अंन्तिम स्थिति कह सकते हैं। जब हम भेद को प्रगट रूप से दिखलाने की आवश्‍कयता होती है, तब ‘ज्ञानमार्ग’ और ‘ज्ञाननिष्‍ठा’ दोनों शब्‍दों का उपयोग समान अर्थ में नहीं किया जाता; किन्‍तु अव्‍यक्‍तोपासना की साधनावस्थावाली स्थिति दिखलाने के लिये ज्ञानमार्ग शब्‍द का उपयोग किया जाता है, और ज्ञान प्राप्ति के अनंतर सब कर्मों को छोड़ ज्ञान ही में निमग्‍न हो जाने की जो सिद्धावस्‍था की स्थिति है उसके लिये ‘ज्ञाननिष्‍ठा‘ शब्‍द का उपयोग किया जाता है। अर्थात्, अव्‍यक्‍तोपासना या अध्‍यात्‍म विचार के अर्थ में ज्ञान को एक बार साधन ( ज्ञानमार्ग ) कह सकते हैं, और दूसरी बार अपरोक्षानुभव के अर्थ में उसी ज्ञान को निष्‍ठा यानी कर्मत्‍याग रूपी अंतिम अवस्‍था कह सकते हैं। यही बात कर्म के विषय में भी कही जा सकती है। शास्‍त्रोक्‍त मर्यादा के अनुसार जो कर्म पहले चित्‍त की शुद्धि के लिये किया जाता है वह साधन कहलाता है। इस कर्म से चित्‍त की शुद्धि होती है और अन्‍त में ज्ञान तथा शान्ति की प्राप्ति होती है; परन्‍तु यदि कोई मनुष्‍य इस ज्ञान में ही निमग्‍न न रहकर शांतिपूर्वक मृत्‍युपर्यन्‍त निष्‍काम-कर्म करता चला जावे, तो ज्ञानयुक्‍त निष्‍काम कर्म की दृष्टि से उसके इस कर्म को निष्ठा कह सकते हैं (गी. 3. 3 )।

यह बात भक्ति के विषय में नहीं कह सकते क्‍योंकि भक्ति सिर्फ, एक मार्ग या उपाय अर्थात् ज्ञान प्राप्ति का साधन ही है-वह निष्‍ठा नहीं है। इसलिये गीता के आरम्‍भ में ज्ञान ( सांख्‍य ) और योग ( कर्म ) यही दो निष्‍ठाएं कही गयी हैं उनमें से कर्म-योग-निष्‍ठा की सिद्धि के उपाय, साधन, विधि या मार्ग का विचार करते समय[1], अव्‍यक्‍तोपासना ( ज्ञानमार्ग ) और व्‍यक्‍तोपासना ( भक्तिमार्ग ) का- अर्थात् जो दो साधन प्राचीन समय से एक साथ चले आ रहे हैं उनका-वर्णन करके, गीता में सिर्फ़ इतना ही कहा है कि इन दोनों साधनों में से अव्‍यक्‍तोपासना बहुत क्लेशमय है और व्‍यक्‍तोपासना या भक्ति अधिक सुलभ है, यानी इस साधन का स्‍वीकार सब साधारण लोग कर सकते हैं। प्राचीन उपनिषदों में ज्ञान-मार्ग ही का विचार किया गया हैं और शाण्डिल्‍य आदि सूत्रों में तथा भागवत आदि ग्रन्‍थों में भक्ति-मार्ग ही की महिमा गाई गई है। परन्‍तु साधन-दृष्टि से ज्ञानमार्ग और भक्ति-मार्ग में योग्‍यतानुसार भेद दिखलाकर अन्‍त में इन दोनों का मेल निष्‍काम-कर्म के साथ जैसा गीता ने सम-बुद्धि से किया है, वैसा अन्‍य किसी भी प्राचीन धर्म-ग्रन्‍थ ने नहीं किया है। ईश्‍वर के स्‍वरूप का यह यथार्थ और अनुभवात्‍मक ज्ञान होने के लिये, कि ‘सब प्राणियों में एक ही परमेश्‍वर है,’ देहेन्द्रियधारी मनुष्‍य को क्‍या करना चाहिये?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.7.1

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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