गीता रहस्य -तिलक पृ. 405

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तेरहवां प्रकरण

इसलिये इस मार्ग में भी श्रद्धा और प्रेम की आवश्‍यकता छूट नहीं सकती। सच पूछो तो तात्विक दृष्टि से सच्चिदानन्‍द ब्रह्मोपासना का समावेश भी प्रेममूलक भक्तिमार्ग में ही किया जाना चाहिये। परन्‍तु इस मार्ग में ध्‍यान करने के लिये जिस ब्रह्म-स्‍वरूप का स्‍वीकार किया जाता हे वह केवल अव्‍यक्‍त और बुद्धिगम्‍य अर्थात् ज्ञानगम्‍य होता है और उसी को प्रधानता दी जाती है, इसलिये इस क्रिया को भक्तिमार्ग न कहकर अध्‍यात्‍मविचार, अव्‍यक्‍तोपासना या केवल उपासना, अथवा ज्ञानमार्ग कहते हैं। और, उपास्‍य ब्रह्म के सगुण रहने पर भी जब उसका अव्‍यक्‍त के बदले व्‍यक्‍त और विशेषत: मनुष्‍य देहधारी-रूप स्‍वीकृत किया जाता है, तब वही भक्तिमार्ग कहलाता है। जिस इस प्रकार यद्यपि माग्र दो हैं तथापि उन दोनों में एकही परमेश्‍वर की प्राप्ति होती है और अंत में एकही सी साम्‍यबुद्धि मन में उत्‍पन्‍न होती है; इसलिये स्‍पष्‍ट देख पड़ेगा कि जिस प्रकार किसी घर में जाने के लिये दो ज़ीने होते हैं उसी प्रकार भिन्‍न भिन्‍न मार्ग हैं-इन मार्गों की भिन्‍नता से अन्तिमसाध्‍य अथवा ध्‍येय में कुछ भिन्‍नता नहीं होती। इनमें से एक ज़ीने की पहली सीढ़ी बुद्धि है, तो दूसरे ज़ीने की पहली सीढ़ी श्रद्धा और प्रेम है; और, किसी भी मार्ग से जाओ अंत में एक ही परमेश्‍वर का एक ही प्रकार का ज्ञान होता है, एवं एकही सी मुक्ति भी प्राप्‍त होती है।

इसलिये दोनों मार्गों में यही सिद्धांत एक ही सा स्थिर रहता है, कि’ अनुभावात्‍मक ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं मिलता’। फिर यह व्‍यर्थ बखेड़ा करने से क्‍या लाभ है,कि ज्ञानमार्ग श्रेष्ठ है या भक्तिमार्ग श्रेष्‍ठ है? यद्यपि ये दोनों साधन प्रथमावस्‍था में अधिकार या योग्‍यता के अनुसार भिन्‍न हों, तथापि अंत में अर्थात् परिणामरूप में दोनों की योग्‍यता समान है और गीता में इन दोनों को एक ही ‘अध्‍यात्‍म‘ नाम दिया गया है[1]। अब यद्यपि साधन की दृष्टि से ज्ञान और भक्ति की योग्‍यता एक ही समान है, तथापि इन दोनों में यह महत्‍व का भेद है, कि भक्ति कदापि निष्‍ठा नहीं हो सकती, किन्‍तु ( यानी सिद्धावस्‍था की अन्तिम स्थिति ) कह सकते हैं। इसमें संदेह नहीं कि, अध्‍यात्‍म विचार से या अव्‍यक्‍तोपासना से परमेश्‍वर का जो ज्ञान होता है, वही भक्ति से भी हो सकता है[2]; परन्‍तु इस प्रकार ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर आगे यदि कोई मनुष्‍य इस संसार को छोड़ दे और ज्ञान ही में सदा निमग्‍न रहने लगे, तो गीता के अनुसार वह ‘ज्ञाननिष्‍ठ’ कहलावेगा, ‘भक्तिनिष्‍ठ’ नहीं। इसका कारण यह है कि जब तक भक्ति की क्रिया जारी रहती है तब तक उपास्‍य और उपास्‍य रूपी द्वैत-भाव भी बना रहता है; और अन्तिम ब्रह्मात्‍मैक्‍य स्थिति में तो, भक्ति का पर्यवसान् या फल ज्ञान है; भक्ति ज्ञान का साधन है-वह कुछ अन्तिम साध्‍य वस्तु नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11. 1
  2. गी. 18. 55

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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