गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तेरहवां प्रकरण
नारद के भक्तिसूत्र में इसी भक्ति के ग्यारह भेद किये गये हैं[1]। परन्तु भक्ति के इन सब भेदों का निरूपण दासबोध आदि अनेक भाषा-ग्रन्थों में विस्तृत रीति से किया गया है, इसलिये हम यहाँ उनकी विशेष चर्चा नहीं करते। भक्ति किसी प्रकार की हो; यह प्रगट है कि परमेश्वर में नितिशय ओर निर्हेतुक प्रेम रख कर अपनी वृत्ति को तदाकार करने का भक्त्िा का सामान्य काम प्रत्येक मनुष्य को अपने मन ही से करना पड़ता है। छठवें प्रकरण में कह चुके हैं कि बुद्धि नामक जो अन्तरिन्द्रिय है वह केवल भले-बुरे, धर्म अधर्म अथवा कार्य अकार्य का निर्णय करने के सिवा और कुछ नहीं करती, शेष सब मानसिक कार्य मन ही को करने पड़ते हैं। अर्थात् अब मन ही के दो भेद हो जाते है-एक भक्ति करने वाला मन और दूसरा उसका उपास्य यानी जिस पर प्रेम किया जाता है वह वस्तु। उपनिषदों में जिस श्रेष्ठ ब्रह्मस्वरूप का प्रतिपादन किया गया है वह इंद्रियातीत, अव्यक्त, अनन्त निर्गुण और ‘एकमेवाद्वितीयं’ है, इसलिये उपासना का आरम्भ उस स्वरूप से नहीं हो सकता। कारण यह है कि जब श्रेष्ठ ब्रह्मस्वरूप का अनुभव होता है तब मन अलग नहीं रहता; किन्तु उपास्य और उपासक, अथवा ज्ञाता और ज्ञेय, दोनों एक रूप हो जाते हैं। निर्गुण ब्रह्म अन्तिम साध्य वस्तु है, साधन नहीं; और जब तक किसी न किसी साधन से निर्गुण ब्रह्म के साथ एकरूप होने की पात्रता मन में न आवे, तब तक इस श्रेष्ठ ब्रह्मस्वरूप का साक्षात्कार ही नहीं हो सकता। अतएव साधन की दृष्टि से की जानेवाली उपासना के लिये जिस ब्रह्म-स्वरूप का स्वीकार करना होता है, वह दूसरी श्रेणी का अर्थात् उपास्य और उपासक के भेद से मन को गोचर होने वाला यानी सगुण ही होता है; और इसी लिये उपनिषदों में जहाँ जहाँ ब्रह्म की उपासना कही गई है, वहाँ वहाँ उपास्य ब्रह्म के अव्यक्त होने पर भी सगुणरूप से ही इसका वर्णन किया गया है। उदाहरणार्थ, शाण्डिल्य विद्या में जिस ब्रह्म की उपासना कही गई है वह यद्यपि अव्यक्त अर्थात् निराकार है; तथापि छांदोग्योपनिषद[2] में कहा है, कि वह प्राण-शरीर, सत्य-संकल्प, सर्वगंध, सर्वरस, सर्वकर्म, अर्थात् मन को गोचर होने वाले सब गुणों से युक्त हो। स्मरण रहे कि यहाँ उपास्य ब्रह्म यद्यपि सगुण है तथापि वह अव्यक्त अर्थात् निराकार है। परन्तु मनुष्य के मन की स्वाभाविक रचना ऐसी है कि, सगुण वस्तुओं में से भी जो वस्तु अव्यक्त होती है अर्थात् जिसका कोई विशेष रूप रंग आदि नहीं और इसलिये जो नेत्रादि इन्द्रियों को अगोचर है उस पर प्रेम रखना या हमेशा उसका चिन्तन कर मन को उसी में स्थिर करके वृत्ति को तदाकार करना मनुष्य के लिये बहुत कठिन और दु:साध्य भी है। क्योंकि, मन स्वभाव ही से चंचल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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