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तेरहवां प्रकरण
इस विषय की उपपत्ति या कारण बतलाने वाले पुरुष बहुत ही कम मिलते हैं; तो भी इन सिद्धान्तों को सत्य मानकर ही जगत का व्यवहार चल रहा है। ऐसे लोग बहुत ही कम मिलेंगे जिन्हें इस बात का प्रत्यक्ष ज्ञान है, कि हिमालय की ऊँचाई 5 मील है या दस मील। परन्तु जब कोई यह प्रश्न पूछता है कि हिमालय की ऊँचाई कितनी है, तब भूगोल की पुस्तक में पढ़ी हुई ‘’तेईस हज़ार फुट’’ संख्या हम तुरन्त ही बतला देते हैं! यदि इसी प्रकार कोई पूछे कि ‘’ब्रह्म कैसा है’’ तो यह उत्तर देने में क्या हानि है कि वह ‘’निर्गुण’’ है? वह सचमुच ही निर्गुण है या नहीं, इस बात की पूरी जांच कर उसके साधक-बाधक प्रमाणों की मीमांसा करने के लिये सामान्य लोगों में बुद्धि की तीव्रता भले ही न हो; परन्तु श्रद्धा या विश्वास कुछ ऐसा मनोधर्म नहीं है, जो महाबुद्धिमान् पुरुषों में ही पाया जाय। अज्ञजनों में भी श्रद्धा की कुछ न्यूनता नहीं होती। और जब, कि श्रद्धा से ही वे लोग अपने सैकड़ों सांसारिक व्यवहार किया करते हैं, तो उसी श्रद्धा से यदि वे ब्रह्म को निर्गुण मान लेवें तो कोई प्रत्यवाय नहीं देख पड़ता।
मोक्ष-धर्म का इतिहास पढ़ने से मालूम होगा, कि अब ज्ञानी पुरुषों ने ब्रह्मस्वरूप की मीमांसा कर उसे निर्गुण बतलाया, उसके पहले ही मनुष्य ने केवल अपनी श्रद्धा से यह जान लिया था, कि सृष्टि की जड़ में सृष्टि के नाशवान् और अनित्य पदार्थों से भिन्न या विलक्षण कोई एक तत्त्व है, जो अनाद्यंत, अमृत, स्वतन्त्र, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है: और, मनुष्य उसी समय से उस तत्व की उपासना किसी न किसी रूप में करता चला आया है। यह सच है किय वह उस समय इस ज्ञान की उपपत्ति बतला नहीं सकता था; परनतु आधिभौतिकशास्त्र में भी यही क्रम देख पड़ता है। कि पहले अनुभव होता है और पश्चात् उसकी उपपत्ति बतलाई जाती है। उदाहरणार्थ, भस्कराचार्य को पृथ्वी के ( अथवा अन्त में न्यूटन को सारे विश्व के ) गुरुत्वाकर्षण की कल्पना सूझने के पहले ही यह बात अनादि काल से सब लोगों को मालूम थी, कि पेड़ से गिरा हुआ फल नीचे पृथवी पर गिर पड़ता है आध्यात्मशास्त्र को भी यही नियम उपयुक्त है श्रद्धा से प्राप्त हुए ज्ञान की जांच करना और उसकी उपपत्ति की खोज करना बुद्धि का काम है सही; परन्तु सब प्रकार योग्य उपपत्ति के न मिलने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि श्रद्धा से प्राप्त होने वाला ज्ञान केवल भ्रम है।
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