गीता रहस्य -तिलक पृ. 400

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तेरहवां प्रकरण

तब पिता ने कहा ‘’अरे! यह जो तुम ‘कुछ नहीं’ कहते हो, उसी से यह बरगद का बहुत बड़ा वृक्ष हुआ है‘’; और अंत में यह उपदेश दिया कि’ श्रद्धत्‍स्‍व ‘ अर्थात् इस कल्‍पना को केवल बुद्धि में रख मुँह से ही ‘हां मत कहो किन्‍तु उसके आगे भी चलो, यानी इस तत्त्व को अपने हृदय में अच्‍छी तरह जमने दो और आचरण या कृति में दिखाई देने दो। सारांश, यदि यह निश्‍चयात्‍मक ज्ञान होने के लिये भी श्रद्धा की आवश्‍यकता है, कि सूर्य का उदय कल सबेरे होगा; तो यह भी निर्विवाद सत्‍य है कि इस बात को पूर्ण- तथा जान लेने के लिये-कि सारी सृष्टि का मूलतत्‍व अनादि, अनन्‍त, सर्वकर्तृ, सर्वज्ञ स्‍वतन्‍त्र और चैतन्‍यरूप है-पहले हम लोगों को यथाशक्ति बुद्धिरूपी साधारण मार्ग का अवलम्‍बन करना चाहिये, परन्‍तु उसके अनुरोध से कुछ और भी आगे बढ़ कर श्रद्धा और प्रेम की पगडंडी से ही जाना चाहिये। देखिये, मैं जिसे मा कह कर ईश्‍वर के समान वंद्य और पूज्‍य मानता हूँ, उसे ही अन्‍य लोग एक सामान्‍य स्‍त्री समझते हैं या नैय्यायिकों के शास्‍त्रीय शब्‍दाडंबर के अनुसार ‘’गर्भधारण-प्रसवादिस्‍त्रीत्‍वसामान्‍यावच्‍छेदकावच्छिन्नव्यक्तिविशेष:‘’ समझते हैं। इस एक छोटे व्‍यावहारिक उदाहरण से यह बात किसी के ध्‍यान में सहज आ सकती है, कि जब केवल तर्कशास्‍त्र के सहारे प्राप्‍त किया गया ज्ञान, श्रद्धा और प्रेम के सांचे में ढाला जाता है तब उसमें कैसा अन्तर हो जाता है।

इसी कारण से गीता[1]में कहा है कि कर्मयोगियों में भी श्रद्धावान श्रेष्‍ठ है; और ऐसा ही सिद्धांत, जैसा पहले कह आये हैं, अध्‍यात्‍मशास्‍त्र में भी किया गया है, कि इंद्रियातीत होने के कारण जिन पदार्थों का चिंतन करते नहीं बनता, उनके स्‍वरूप का निर्णय केवल तर्क से नहीं करना चाहिये-‘’आचिन्‍त्‍या: खलु ये भावा: न तांस्‍तर्केण चिन्‍तयेत्।‘’ यदि यही एक अड़चन हो, कि साधारण मनुष्‍यों के लिये निर्गुण परब्रह्म का ज्ञान होना कठिन है, तो बुद्धिमान पुरुषों मे मतभेद होन पर भी श्रद्धा या विश्‍वास से उसका निवारण किया जा सकता है। कारण यह है, कि इन पुरुषों में जो अधिक विश्‍वसनीय होंगे उन्‍हीं के वचनों पर विश्‍वास रखने से हमारा काम बन जावेगा[2]। तर्कशास्‍त्र में इस उपाय को ‘’आप्‍तवचनप्रमाण ‘’कहते हैं। आप्‍त‘ का अर्थ विश्‍वसनीय पुरुष है। जगत् के व्‍यवहार पर दृष्टि डालने से यही दिखाई देगा, कि हजारों लोग आप्‍त वाक्‍य पर विश्‍वास रख कर ही अपना व्‍यवहार चलाते हैं। दो पंचे दस के बदले सात क्‍यों नहीं होते, अथवा एक पर एक लिखने से दो नहीं हाते, ग्‍यारह क्‍यों होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 6. 47
  2. गी. 13. 25

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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