गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तेरहवां प्रकरण
वह भी वस्तुत: इसी नमूने का है: तब इस ज्ञान का अनुभव उसकी बुद्धि को प्रत्यक्ष रूप से होता है सही, परंतु इससे भी आगे बढ़ कर जब हम यह कहते हैं कि शक्कर सब मनुष्यों को मीठी लगती है, तब बुद्धि को बिना श्रद्धा की सहायता दिये काम नहीं चल सकता। रेखागणित या भूमितिशास्त्र का सिद्धान्त है, कि ऐसी दो रेखाएं हो सकती हैं जो चाहें जितनी बड़ाई जावे तो भी आपस में नहीं मिलती, कहना नहीं होगा कि इस तत्त्व को अपने ध्यान में लाने के लिये हमको अपने प्रत्यक्ष अनुभव के भी परे केवल श्रद्धा ही की सहायता से चलना पड़ता है। इसके सिवा यह भी ध्यान में रखना चाहिये, कि संसार के सब व्यवहार श्रद्धा, प्रेम आदि नैसर्गिक मनोवृत्तियों से ही चलते हैं: इन वृत्तियों को रोकने के सिवा बुद्धि दूसरा कोई कार्य नहीं करती, और जब बुद्धि किसी बात की भलाई या बुराई का निश्चय कर लेती है, तब आगे उस निश्चय को अमल में लाने का काम मन के द्वारा अर्थात् मनोवृत्ति के द्वारा ही हुआ करता है। इस बात की चर्चा पहले क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविचार में हो चुकी है। सारांश यह है, कि बुद्धिगम्य ज्ञान की पूर्ति होने के लिये और आगे आचरण तथा कृति में उसकी फलद्रूपता होने के लिये, इस ज्ञान को हमेशा श्रद्धा, दया, वात्सल्य, कर्त्तव्य-प्रेम इत्यादि नैसर्गिक मनोवृत्तियों की आवश्यकता होती है; और जो ज्ञान इन मनोवृत्तियों को शुद्ध तथा जागृत नहीं करता, और जिस ज्ञान को उनकी सहायता अपेक्षित नहीं होती; उसे सूखा, कोरा, कर्कश, अधूरा, बाझ या कच्चा ज्ञान समझना चाहिये। जैसे बिना बारूद के केवल गोली से बंदूक नहीं चलती, वैसे ही प्रेम, श्रद्धा आदि मनोवृत्तियों की सहायता के बिना केवल बुद्धिगम्य ज्ञान किसी को तार नहीं सकता यह सिद्धान्त हमारे प्राचीन ऋषियों को भली-भाँति मालूम था। उदाहरण के लिये छांदोग्यापनिषद में वर्णित यह कथा लीजिये[1]:- एक दिन श्वेतकेतु के पिता ने यह सिद्ध कर दिखाने के लिये, कि अव्यक्त और सूक्ष्म परब्रह्म ही सब दृश्य जगत् का मूल कारण है, श्वेतकेतु से कहा कि बरगद का एक फल ले आओ और देखो कि उसके भीतर क्या है। श्वेतकेतु ने वैसा ही किया, उस फल को फोड़ कर देखा, और कहा ‘’इसके भीतर छोटे-छोटे बहुत से बीज या दाने हैं।‘’ उसके पिता ने फिर कहा कि इन बीजों में से एक बीज ले लो, उसे फोड़कर देखो और बतलाओ कि उसके भीतर क्या है? श्वेतकेतु ने एक बीज ले लिया, उसे फोड़ कर देखा और कहा कि इसके भीतर कुछ नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ छां. 6. 12
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