गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
सम्भव नहीं है कि वे ही, स्वार्थ के लिये किसी से भी जगत को ढुबाने के लिये कहें। ऊपर के श्लोक में ‘अर्थे’ शब्द का अर्थ सिर्फ स्वार्थप्रधान नहीं है, किन्तु संकट आने पर उसके निवारणार्थ ऐसा करना चाहिये; और कोशकारों ने भी यही अर्थ किया है। आपमतलबीपन और आत्मरक्षा में बडा भारी अन्तर है। कामोपभोग की इच्छा अथवा लोभ से अपना स्वार्थ साधने के लिये दुनिया का नुकसान करना आपमतलबीपन है। यह अमानुषी और निन्दा है। उक्त श्लोक के प्रथम तीन चरणों में कहा है कि एक के हित की अपेक्षा अनेकों के हित पर सदैव ध्यान देना चाहिये। तथापि प्राणिमात्र में एक ही आत्मा रहने के कारण, प्रत्येक मनुष्य को इस जगत में सुख से रहने का एक ही सा नैसर्गिक अधिकार है; और इस सर्वमान महत्व के नैसर्गिक स्वत्व की ओर दुर्लक्ष्य कर जगत के किसी भी एक व्यक्ति की या समाज की हानि करने का अधिकार, दूसरे किसी व्यक्ति या समाज को नीति की दृष्टि से कदापि प्राप्त नहीं हो सकता-फिर चाहे वह समाज बल और संख्या में कितान ही बढ़ा-चढ़ा कर क्यों न हो, अथवा उसके पास छीना-झपटी करने के साधन दूसरों से अधिक क्यों न हों। यदि कोई इस युक्ति का अवलम्ब करे कि एक की अपेक्षा, अथवा थोडों की अपेक्षा बहुतों का हित अधिक योग्यता का है, और इस युक्ति से, संख्या में अधिक बढे़ हुए समाज के स्वार्थी बर्ताव का समर्थन करे तो यह युक्ति-वाद केवल राक्षसी समझा जावेगा। इस प्रकार दूसरे लोग यदि अन्याय से बर्तने लगें तो बहुतेरों के तो क्या, सारी पृथ्वी के हित की अपेक्षा भी आत्मरक्षा अर्थात अपने बचाव का नैतिक हक और भी अधिक सबल हो जाता है; यही उक्त चौथे चरण का भावार्थ है और पहले तीन चरणों में जिस अर्थ का वर्णन है, उसी के लिये महत्व के अपवाद के नाते से इसे उनके साथ ही बतला दिया है। इसके सिवा यह भी देखना चाहिये कि यदि हम स्वयं जीवित रहेंगे तो भी लोक-कल्याण कर सकेंगे। अतएव लोकहित की दृष्टि से विचार करें तो भी विश्वामित्र के समान यही कहना पड़ता है कि ‘जीवन् धर्ममवाप्नुयात्’- जियेंगे तो धर्म करेंगे अथवा कालिदास के अनुसार यही कहना पड़ता है कि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ [1] शरीर ही सब धर्मों का मूल साधन है; या मनु के कथनानुसार कहना पड़ता है कि ‘आत्मानं सततं रक्षेत्’- स्वयं अपनी रक्षा सदा सर्वदा करनी चाहिये। यद्यपि आत्मरक्षा का हक सारे जगत के हित की अपेक्षा इस प्रकार श्रेष्ठ है, तथापि दूसरे प्रकरण में कह आये है कि कुछ अवसरों पर कुल के लिये, देश के लिये, धर्म के लिये अथवा परोपकार के लिये स्वयं अपनी ही इच्छा से साधु लोग अपनी जान पर खेल जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कुमा.5. 33
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