गीता रहस्य -तिलक पृ. 391

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

उसी प्रकार सर्वभूतहित की अन्तिम सीमा पर पहुँच जाने पर भी न केवल देशाभिमान की, वरन् कुलाभिमान की भी आवश्‍यकता बनी रहती है। क्‍योंकि समाज सुधार की दृष्टि से देखें तो, कुलाभिमान जो विशेष काम करता है वह निरे देशभिमान से नहीं होता; और देशाभिमान का कार्य निरी सर्वभूतात्‍मैक्‍य-दृष्टि से सिद्ध नहीं होता। अर्थात् समाज की पूर्ण अवस्‍था में भी साम्‍यबुद्धि के ही समान, देशाभिमान और कुलाभिमान आदि धर्मों की भी सदैव जरूरत रहती है। किन्‍तु केवल अपने ही देश के अभिमान को परम साध्‍य मान लेने से, जैसे एक राष्‍ट्र अपने लाभ के लिये दूसरे राष्‍ट्र का मनमाना नुकसान करने के लिये तैयार रहता है, वैसी बात सर्वभूतहित को परमसाध्‍य मानने से नहीं होती। कुलाभिमान, देशभिमान और अन्‍त में पूरी मनुष्‍यजाति के हित में यदि विरोध आने लगे तो साम्‍यबुद्धि से परिपूर्ण नीतिधर्म का, यह महत्‍व पूर्ण और विशेष कथन है कि उच्‍च श्रेणी के धर्मों की सिद्धि के लिये निम्‍न श्रेणी के धर्मों को छोड़ दे। विदुर ने धृतराष्‍ट्र को उपदेश करते हुए कहा है कि युद्ध में कुल का क्षय हो जावेगा, अत: दुर्योधन की टेक रखने के लिये पाण्‍डवों को राज्‍य का भाग न देने की अपेक्षा,यदि दुर्योधन न सुने तो उसे (लड़का भले ही हो) अकेले को छोड़ देना ही उचित है, और इसके समर्थन में यह श्‍लोक कहा है-

त्‍यजेदेकं कूलस्‍यार्थे ग्रामस्‍यार्थे कुलं त्‍यजेत्।
ग्रामं जनपदस्‍यार्थे आत्‍मार्थे पृथिवीं त्‍यजेत्।।

कुल के (बचाव के) लिये एक मनुष्‍य को, गॉव के लिये कुल को, और पूरे लोकसमूह के लिये गॉव को एवं आत्‍मा के लिये पृथ्‍वी को छोड़ दे’’[1]। इस श्‍लोक के पहले और तीसरे चरण का तात्‍पर्य वही है कि जिसका उल्‍लेख ऊपर किया गया है और चौथे चरण में आत्‍मा का तत्त्व बतलाया गया है। आत्‍मा शब्‍द सामान्‍य सर्वनाम है, इससे यह आत्‍मरक्षा का तत्त्व जैसे एक व्‍यक्ति को उपयुक्‍त होता है, वैसे ही एकत्रित लोक-समूह को, जाति को, देश अ‍थवा राष्‍ट्र को भी उपयुक्‍त होता है: और कुल के लिये एक पुरुष को, ग्राम के लिये कुल को एवं देश के लिये ग्राम छोड़ देने की क्रमश: चढ़ती हुई इस प्राचीन प्रणाली पर जब हम ध्‍यान देते हैं तब स्‍पष्‍ट देख पड़ता है कि ‘आत्‍मा’ शब्‍द का अर्थ इन सब की अपेक्षा इस स्‍थल पर अधिक महत्‍व है कि फिर भी कुछ मतलबी या शास्‍त्र न जाननेवाले लोग, इस चरण का कभी कभी विपरीत अर्थात निरा स्‍वार्थप्रधान अर्थ किया करते हैं; अतएव यहाँ कह देना चाहिये कि आत्मरक्षा का यह तत्त्व आपमतलबीपन का नहीं है। क्‍योंकि, जिन शास्‍त्रकारों ने निरे स्‍वार्थसाधु चार्वाक-पन्‍थ को राक्षसी बतलाया है [2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. म.भा. आदि. 115.36; सभा.61.11
  2. देखो गी.अ.16

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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