गीता रहस्य -तिलक पृ. 388

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

मायावियों के साथ जो मायावी नहीं बनते, वे नष्‍ट हो जाते हैं’’[1]। परन्‍तु यहाँ एक बात पर और ध्‍यान देना चाहिये कि दुष्‍ट पुरुष का प्रतिकार यदि साधुता से हो सकता हो, तो पहले साधुता से ही करे। क्‍योंकि दूसरा यदि दुष्‍ट हो तो उसी के साथ हमें भी दुष्‍ट न हो जाना चाहिये-यदि कोई एक नकटा हो जाय तो सारा गांव का गांव अपनी नाक नहीं कटा लेता! और क्‍या कहें, यह धर्म है भी नहीं। इस ‘’न पापे प्रतिपाप: स्‍यात्’’ सूत्र का ठीक भावार्थ यही है; और इसी कारण से विदुरनीति में धृतराष्ट्र की पहले यही नीतितत्‍व बतलाया गया है कि ‘’न तत्‍परस्‍य संदध्‍यात् प्रतिकूलं यदात्‍मन:-‘’जैसा व्‍यवहार स्‍वयं अपने लिये प्रतिकूल मालूम हो, वैसा बर्ताव दूसरों के साथ न करें। इसके पश्‍चात ही विदुर ने कहा है-

अक्रोधेन जयेत्‍क्रोधं असाधु साधुना जयेत्।
जयेत्‍कदर्ये दानेन जयेत् सत्‍येन चानृतम्।।

‘’( दूसरे के ) क्रोध को (अपनी ) शान्ति से जीतें, दुष्‍ट को साधुता से जीतें, कृपण को दान से जीतें और अनृत को सत्‍य से जीतें’’[2]। पाली भाषा में बौद्धौं का जो धम्‍मपद नामक नीतिग्रन्‍थ है, उसमें ( 233 ) इसी श्‍लोक का हूबहू अनुवाद है-

अक्रोधेन जिने क्रोधं असाधुं साधुना जिने।
जिने कदरिय दानेन सच्चेनालीकवादिनम्।।

शान्ति पर्व में युधिष्ठिर को उपदेश करते हुए भीष्‍म ने भी इसी नीति तत्‍व के गौरव का वर्णन इस प्रकार किया है–

कर्म चैतदसाधूनां असाधुं साधुना जयेत्।
धर्मेण निधनं श्रेयो न जय: पापकर्मणा।।

‘’दुष्‍ट की असाधुता, अर्थात् दुष्‍ट कर्म, का साधुता से निवारण करना चाहिये; क्‍योंकि पाप कर्म से जीत लेने की अपेक्षा धर्म से अर्थात् नीति से मर जाना भी श्रेयस्‍कर है’’[3]। किन्‍तु ऐसी साधुता से यदि दुष्‍ट के दुष्‍कर्मों का निवारण न होता हो, अथवा साम-उपचार और मेल-जोल की बात दुष्‍टों को न पसन्‍द हो तो, जो कांटा पुल्टिस से बाहर न निकलता हो, कणटकेनैव कणटकम्’’ के न्‍याय से साधारण कांटे से, अथवा लोहे के कांटे-सुई-से बहार निकाल डालना आवश्‍यक है[4]। क्‍योंकि, प्रत्‍येक समय, लोकसंग्रह के लिये दुष्‍टों का निग्रह करना, भगवान के समान, धर्म की दृष्टि से साधु पुरुषों का भी पहला कर्त्‍तव्‍य है। ‘’साधुता से दुष्‍टता को जीतै ‘’ इस वाक्‍य में भी पहले यही बात मानी गई है कि दुष्‍टता को जीत लेना अथवा उसका निवारण करना साधु पुरुष का पहला कर्त्‍तव्‍य है, फिर उसकी सिद्धि के लिये बतलाया है कि पहले किस उपाय की योजना करे। यदि साधुता से उसका निवारण न हो सकता हो–सीधी अँगुली से घी न निकले-तो ‘’जैसे को तैसा‘’ वन कर दुष्‍टता का निवारण करने से हमें, हमारे धर्मग्रन्‍थकार कभी भी नहीं रोकते; वे यह कहीं भी प्रतिपादन नहीं करते कि दुष्‍टता के आगे साधु पुरुष अपना बलिदान खुशी से किया करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. किरा. 1. 30
  2. मभा. उद्यो. 38. 73. 74
  3. शां. 95. 16
  4. दास. 19. 9. 12. 31

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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