गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
सारांश, जैसे अचेतन सृष्टि का कभी भी न बदलनेवाला यह नियम है कि’ आघात के बराबर ही प्रत्याघात ‘ हुआ करता है; वैसे ही सचेतन[1] सृष्टि में उस नियम का रूपान्तर है कि ‘’जैसे को तैसा’’ होना चाहिये। वे साधारण लोग, कि जिनकी बुद्धि साम्यवस्था में पहुँच नहीं गई है, इस कर्मविपाक के नियम के विषय में अपनी ममत्व बुद्धि उत्पन्न कर लेते हैं, और अथवा अपने से दुबले मनुष्य के साधारण या काल्पनिक अपराध के लिये प्रतिकार-बुद्धि के निमित्त से उसको लूट कर अपना फायदा कर लेने के लिये सदा प्रवृत्त होते हैं। किन्तु साधारण मनुष्यों के समान बदला भँजाने की, वैर की, अभिमान की, क्रोध से-लोभ से या द्वेष से दुर्बलों को लूटने की, अथवा टेक से अपना अभिमान, शेखी, सत्ता, और शक्ति की प्रदर्शिनी दिखलाने की बुद्धि जिसके मन में न रहे, उसकी शान्त, निर्वैर और समबुद्धि वैसे ही नहीं बिगड़ती है जैसे कि अपने ऊपर गिरी हुई गेंद को सिर्फ पीछे लौटा देने में बुद्धि में, कोई भी विकार नहीं उपजता; और लोकसंग्रह की दृष्टि से ऐसे प्रत्याघात स्वरूप कर्म करना उसका धर्म अर्थात् कर्त्तव्य हो जाता है कि, जिसमें दुष्टों का दबदबा बढ़ कर कहीं गरीबी पर अत्याचार न होने पावे[2]। गीता के सारे उपदेश का सार यही है कि ऐसे प्रसंग पर समबुद्धि से किया हुआ घोर युद्ध भी धर्म्य और श्रेयस्कर है। वैरभाव न रखकर सब से बर्तना, दुष्टों के साथ दुष्ट न बन जाना, गुस्सा करने वाले पर ख़फा न होना आदि धर्मतत्त्व स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी को मान्य तो हैं; परन्तु संन्यासमार्ग का यह मत कर्मयोग नहीं मानता कि ‘निर्वैर शब्द का अर्थ केवल निष्क्रिय अथवा प्रतिकार-शून्य है; किन्तु वह निर्वैर शब्द का सिर्फ इतना ही अर्थ मानता है कि वैर अर्थात् मन की दुष्ट बुद्धि छोड़ देनी चाहिये; और जबकि कर्म किसी के छूटते हैं ही नहीं, तब उसका कथन है कि सिर्फ लोकसंग्रह के लिये अथवा प्रतिकारार्थ जितने कर्म आवश्यक और शक्य हों, उतने कर्म मन में दुष्ट बुद्धि को स्थान ने दे कर, केवल कर्त्तव्य समझ वैराग्य और नि:संग बुद्धि से करते रहना चाहिये[3]। अत: इस श्लोक[4]में अकेले 'निर्वैर' पद का प्रयोग नहीं किया है-- मस्कर्मकृत मत्परमो मद्भक्त: संगवर्जित:। और इससे प्रथम ही इस दूसरे महत्व के विशेषण का प्रयोग किया है कि, ‘मत्क र्मकृत्’ अर्थात् ’मेरे यानी परमेश्वर के प्रीत्यर्थ, परमेश्वरार्पण बुद्धि से सारे कर्म किया कर; ‘ फिर भगवान ने गीता में निर्वैरत्व और कर्म का, भक्ति की दृष्टि से, मेल मिला दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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