गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
उसकी बुद्धि सम तो रहती है, पर समता का यह अर्थ नहीं है कि गाय का चारा मनुष्य को और मनुष्य का भोजन गाय को खिला दे; तथा भगवान् ने गीता[1] में भी कहा है कि जो ‘दातव्य’ समझकर सात्त्विक दान करना हो, वह भी ‘’देशे काले च पात्रे च’’ अर्थात् देश, काल और पात्रता का विचार कर देना चाहिये। साधु पुरुषों की साम्यबुद्धि के वर्णन में ज्ञानेश्वर महाराज ने उन्हें पृथ्वी की उपमा दी है। इसी पृथ्वी का दूसरा नाम ‘सर्वसहा’ है; किन्तु यह ‘सर्वसहा’ भी यदि इसे कोई लात मारे, तो मारनेवाले के पैर के तले में उतने ही ज़ोर का धक्का दे कर अपनी समता-बुद्धि व्यक्त कर देती है! इससे भली-भाँति समझा जा सकता है कि मन में वैर न रहनें पर भी ( अर्थात् निर्वैर ) प्रतिकार कैसे किया जाता है। कर्मविपाक-प्रक्रिया में कह आये हैं कि इसी कारण से भगवान् भी ‘’ये यथा मां प्रपद्यनते तास्तथैव भजाम्यहम्’’[2]-जो मुझे जैसे भजते हैं, उन्हें में वैसे ही फल देता हूँ-इस प्रकार व्यवहार तो करते हैं परन्तु फिर भी ‘’वैषम्य-नैघृणय’’ दोषों से अलिप्त रहते हैंं। इसी प्रकार व्यवहार अथवा कानून-का़यदे में भी ख़ूनी आदमी को फांसी की सज़ा देनेवाले न्यायाधीश को कोई उसका दुश्मन नहीं कहता। अध्यात्मशास्त्र का सिद्धान्त है कि जब बुद्धि निष्काम होकर साम्यवस्था में पहुँच जावे, तब वह मनुष्य अपनी इच्छा से किसी का भी नुकसान नहीं करता, उससे यदि किसी का नुकसान हो ही जाय तो समझना चाहिये कि वह उसी के कर्म का फल है, इसमें स्थिप्रज्ञ का कोई दोष नहीं; अथवा निष्काम बुद्धिवाला स्थितप्रज्ञ ऐसे समय पर जो काम करता है-फिर देखने में वह मातृवध या गुरुवध सरीखा कितना ही भंयकर क्यों न हो-उसके शुभ अशुभ फल का बन्धन अथवा लेप उसको नहीं लगता[3]। फौजदारी क़ानून में आत्मसंरक्षा के जो नियम हैं, वे इसी तत्व पर रचे गये हैं। कहते हैं कि जब लोगों ने मनु से राजा होने की प्रार्थना की, तब उन्हीं ने पहले यह उत्तर दिया कि ‘’ अनाचार से चलनेवालों का शासन करने के लिये, राज्य को स्वीकार करके मैं पाप में नहीं पड़ना चाहता।‘’ परन्तु जब लोगों ने यह वचन दिया कि, ‘’तमब्रुवन् प्रजा: मा भी: कर्तृनेनो गमिष्यति ‘’[4]- डरिये नहीं, जिसका पाप उसी को लगेगा, आपको तो रक्षा करने का पुण्य ही मिलेगा; और प्रतिज्ञा की कि, ‘’प्रजा की रक्षा करने में जो ख़र्च लगेगा। उसे हम लोग ‘कर’ दे कर पूरा करेंगे,‘’ तब मनु ने प्रथम राजा होना स्वीकार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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