गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
परन्तु उपनिषदों में, मनुस्मृति में, गीता में, महाभारत के अन्यान्य प्रकरणों में और केवल बौद्ध धर्म में ही नही, प्रत्युत अन्यान्य देशों एवं धर्मों में भी आत्मौपम्य के इस सरल नीति तत्त्व को ही सर्वत्र अग्रस्थान दिया हुआ पाया जाता है। यहूदी और क्रिश्चियन धर्मपुस्तकों में जो यह आज्ञा है कि ‘’तू अपने पड़ोसियों पर अपने ही समान प्रति कर’’[1], वह इसी नियम का रूपान्तर है। ईसाई लोग इसे सोने का अर्थात् सोने सरीखा मूल्यवान नियम कहते हैं; परन्तु आत्मैक्य की उपपत्ति उनके धर्म में नहीं है। ईसा का यह उपदेश भी आत्मौपम्य-सूत्र का एक भाग है कि ‘’लोगों से तुम अपने साथ जैसा बर्ताव कराना पसन्द करते हो, उनके साथ तुम्हें स्वयं भी वैसा ही बर्ताव करना चाहिये’’[2], और यूनानी तत्त्ववेत्ता अरिस्टॉटल के ग्रन्थ में मनुष्यों के परस्पर बर्ताव करने का यही तत्त्व अक्षरश: बतलाया गया है। अरिस्टॉटल ईसा से कोई दो-तीन सौ वर्ष पहले हो गया है; परन्तु इससे भी लगभग दो सौ वर्ष पहले चीनी तत्वेता खूँ-फूँ-त्से ( अंग्रेजी़ अपभ्रंश कानफ्यूशियस ) उत्पन्न हुआ था इसने आत्मौपम्य का उल्लिखित नियम चीनी भाषा की प्रणाली के अनुसार एक ही शब्द में बतला दिया है! परन्तु यह तत्व हमारे यहाँ कानफ्यूशियस से भी बहुत पहले से, उपनिषदों[3] में और फिर महाभारत में, गीता में, एवं ‘’पराये को भी आत्मवत् मानना चाहिये’’[4] इस रीति से साधु-सन्तों के ग्रन्थों में विद्यमान है तथा इस लोकोक्ति का भी प्रचार है कि ‘’आप बीती सो जग बीती’’। यही नहीं, बल्कि इसकी आध्यात्मिक उपपत्ति भी हमारे प्राचीन शास्त्रकारों ने दे दी है। जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि यद्यपि नीतिधर्म का यह सर्वमान्य सूत्र वैदिक धर्म से भिन्न इतर धर्मों में दिया गया हो, तो भी इसकी उपपत्ति नहीं बतलाई गई है; और जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि इस सूत्र की उपपत्ति ब्रह्मात्मैक्यरूप अध्यात्म ज्ञान को छोड़ और दूसरे किसी से भी ठीक ठीक नहीं लगती; तब गीता के अध्यात्मिक नीतिशास्त्र का अथवा कर्मयोग का महत्व पूरा-पूरा व्यक्त हो जाता है। समाज में मनुष्यों के पारस्परिक व्यवहार के विषय में ’आत्मौपम्य’ बुद्धि का नियम इतना सुलभ, व्यापक, सुबोध और विश्वतोमुख है कि जब एक बार यह बतला दिया कि प्राणिमात्र में रहनेवाले आत्मा की एकता को पहचान कर ‘’आत्मवत् समबुद्धि से दूसरों के साथ बर्तते जाओ,‘’ तब फिर ऐसे पृथक् पृथक् उपदेश करने की ज़रूरत ही नहीं रह जाती कि लोगों पर दया करो, उनकी यथाशक्ति मदद करो, उनका कल्याण करो, उन्हें अभ्युदय के मार्ग में लगाओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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