गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
प्रत्याख्याने च दाने च सुखदु:खे प्रियाप्रिये। ‘’सुख या दु:ख प्रिय या अप्रिय, दान अथवा निषेध-इन सब बातों का अनुमान दूसरों के विषय में वैसा ही करें, जैसा कि अपने विषय में जान पड़े। दूसरों के साथ मनुष्य जैसा बर्ताव करता है, दूसरे भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं अतएव यही उपमा लेकर इस जगत् में आत्मौपम्य की दृष्टि से बर्ताव करने को सयाने लोगों ने धर्म कहा है‘’[1]। यह ‘’ न तत्परस्य संदष्यात् प्रतिकूलं यदात्मन: ‘’ श्लोक विदुरनीति[2] में भी है; और आगे शान्ति पर्व[3] में विदुर ने फिर यही तत्त्व युधिष्ठिर को बतलाया है। परन्तु आत्मौपम्य नियम का यह एक भाग हुआ कि दूसरों को दु:ख न दो, क्योंकि जो तुम्हें दुखदायी है वही और लोगों को भी दु:खदायी होता है अब इस पर कदाचित किसी को यह दीर्घशंका हो कि, इससे यह निश्चयात्मक अनुमान कहाँ निकलता है कि तुम्हें जो सुखदायक जँचे, वही औरों को भी सुखदायक है और इसलिये ऐसे ढंग का बर्ताव करो जो औरों को भी सुखदायक हो? इस शंका के निरसनार्थ भीष्म ने युधिष्ठिर को धर्म के लक्षण बतलाते समय इससे भी अधिक खुलासा करके इस नियम के दानों मार्गों का स्पष्ट उल्लेख कर दिया है – यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मन: कर्म पूरुष:। अर्थात् ‘’हम दूसरों से अपने साथ जैसे बर्ताव का किया जाना पसन्द करते-यानी अपनी पसन्द को समझ कर-वैसा बर्ताव हमें भी दूसरों के साथ न करना चाहिये। जो स्वयं जीवित रहने की इच्छा रखता है, वह दूसरों को कैसे मारेगा? ऐसी इच्छा रखे कि जो हम चाहते हैं, वही और लोग भी चाहते हैं’’[4]। और दूसरे स्थान पर इसी नियम को बतलाने में इन ‘अनुकूल’ अथवा ‘प्रतिकूल’ विशेषणों का प्रयोग न करके, किसी भी प्रकार के आचरण के विषय में सामन्यत: विदुर ने कहा– तस्माद्धर्मप्रधानेन भवितव्यं यतात्मना। तथा च सर्वभूतेषु वर्तितव्यं यथात्मनि।। ‘’इन्द्रियनिग्रह करके धर्म से बर्तना चाहिये; और अपने समान ही सब प्राणियों से बर्ताव करे’’[5]। क्योंकि शुकानुप्रश्न में व्यास कहते हैं– यावानात्मनि वेदात्मा तावानात्मा परात्मनि। ‘’जो सदैव यह जानता है कि हमारे शरीर में जितना आत्मा है उतना ही दूसरे के शरीर में भी है. वही अमृतत्व अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेने में समर्थ होता है ‘’[6]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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