गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
उनकी लोककल्याण करने की इच्छा का इतना तीव्र हो जाना कदापि उसकी उपपत्ति अधिकांश लोगों के अधिक बाहरी सुखों के तारतम्य से नही लगाई है; किन्तु लोगों की संख्या अथवा उनके सुखो की न्यूनाधिकता के विचारों को आगन्तुक अतएव कृपण कहा है तथा शुद्ध व्यवहार की मूलभूत साम्यबुद्धि की उपपत्ति अध्यात्मशास्त्र के नित्य ब्रह्मज्ञान के आधार पर बतलाई है। इससे देख पड़ेगा कि प्राणिमात्र के हितार्थ उद्योग करन या लोककल्याण अथवा परोपकार करने की युक्तिसंगत उपपत्ति अध्यात्मदृष्टि से क्योंकर लगती है। अब समाज में एक दूसरे के साथ बर्तने के सम्बन्ध में साम्य-बुद्धि की दृष्टि से हमारे शास्त्रों में जो मूल नियम बतलाये गेये हैं, उनका विचार करते हैं। ‘’यत्र वा अस्य सर्वमात्मैवाभूत्’’[1]-जिसे सर्व आत्ममय हो गया, वह साम्बुद्धि से ही सब के साथ बर्तता है-यह तत्त्व बृहदारण्यक के सिवा ईशावास्य ( 6) और कैवल्य ( 1. 10 ) उपनिषदों मे, तथा मनुस्मृति[2] में भी है, एवं इसी तत्त्व का गीता के छठे अध्याय[3] में ‘’सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि’’ के रूप में अक्षरश: उल्लेख है। सर्वभूतस्मैक्य अथवा साम्यबुद्धि के इसी तत्त्व का रूपान्तर आत्मौपम्यदृष्टि है। क्योंकि इससे सहज ही यह अनुमान निकलता है कि जब मैं प्राणिमात्र में हूँ और मुझ में सभी प्राणी हैं, तब मैं अपने साथ जैसा बर्तता हूँ वैसा ही अन्य प्राणियों के साथ भी मुझे बर्ताव करना चाहिये। अतएव भगवान ने कहा है कि इस’’ आत्मौपम्य–[4] अर्थात् समता से जो सबके साथ बर्तता है’’ वही उत्तम कर्मयोगी स्थितप्रज्ञ है और फिर अर्जुन को इसी प्रकार के बर्ताव करने का उपदेश दिया है[5]। अर्जुन अधिकारी था, इस कारण इस तत्त्व को खोल कर समझने की गीता में कोई ज़रूरत न थी। किन्तु जन साधारण को नीति का और धर्म का बोध कराने के लिये रचे हुए महाभारत में अनेक स्थानों पर यह तत्त्व बतला कर[6], व्यासदेव ने इसका गम्भीर और व्यापक अर्थ स्पष्ट कर दिखलाया है। उदाहरण लीजिये, गीता और उपनिषदों में संक्षेप से बतलाये हुए आत्मौपम्य के इसी तत्त्व को पहले इस प्रकार समझाया है- आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति पुरुष:। ‘’जो पुरुष अपने ही समान दूसरे को मानता है और जिसने क्रोध को जीत लिया है, वह परलोक में सुख पाता है’’[7]। परस्पर एक दूसरे के साथ बर्ताव करने के वर्णन को यहीं समाप्त न करके आगे कहा है- न तत्परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मन:। ‘’ऐसा बर्ताव औरों के साथ न करे कि जो स्वयं अपने को प्रतिकूल अर्थात् दु:ख कारक जँचे। यही सब धर्म और नीतियों का सार है, और बाकी सभी व्यवहार लोभ मूलक हैं’’[8]।और अन्त में बृहस्पति ने युधिष्ठिर से कहा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृह. 2. 4. 14
- ↑ 12. 91 और 125
- ↑ 6. 29
- ↑ गी. र. 49
- ↑ गी. 6. 30-32
- ↑ मभा. शां. 238.21; 261. 33
- ↑ मभा. अनु. 113. 6
- ↑ मभा. अनु. 113.8
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