गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
दासबोध[1] में श्रीसमर्थ ने भी वर्णन किया है कि ‘’वह परोपकार ही करता रहता है, उसी सब को ज़रूरत बनी रहती है, ऐसी दशा में उसे भूमण्डल में किस बात की कमी रह सकती है? ‘’व्यवहार की दृष्टि से देखें तो भी काम करने वाले को जान पड़ेगा कि यह उपदेश बिलकुल यथार्थ है। सारांश, जगत में देखा जाता है कि लोककल्याण में जुटे रहने वाले पुरुष का योग-क्षेम कभी अटकता नहीं है। केवल परोपकार करने के लिये इसे निष्काम बुद्धि से तैयार रहना चाहिये। एक बार इस भावना के दृढ़ हो जाने पर, कि ‘सभी लोग मुझ में हैं और मैं सब लोगों में हूँ ‘ फिर यह प्रश्न ही नहीं हो सकता कि परार्थ से स्वार्थ भिन्न है। ‘मैं’ पृथक और लोग पृथक इस आधिभौतिक द्वैत बुद्धि से ‘अधिकांश लोगों के अधिक सुख करने के लिये जो प्रवृत्त होता है उसके मन में ऊपर लिखी हुई भ्रामक शंका उत्पन्न हुआ करती है। परन्तु जो ‘सर्वे खल्विदं ब्रह्म’ इस अद्वैत बुद्धि से परोपकार करने में प्रवृत्त हो जाय, उसके लिये यह शंका ही नहीं रहती। सर्वभूतात्मैक्य-बुद्धि से निष्पन्न होने वाले सर्वभूतहित के इस आध्यात्मिक तत्व में, और स्वार्थ एवं परार्थ रूपी द्वैत के अर्थात् अधिकांश लोगों के सुख के तारतम्य से निकलनेवाले लोककल्याण के आधिभौतिक तत्व में इतना ही भेद है, जो ध्यान देने योग्य है। साधु पुरुष मनमें लोक कल्याण करने का हेतु रख कर, लोकल्याण नहीं किया करते। जिसे प्रकार प्रकाश फैलाना सूर्य का स्वाभाव है, उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान से मन में सर्वभूतात्मैक्य की पूर्ण परख हो जाने पर लोककल्याण करना तो इन साधु पुरुषों का सहज स्वभाव हो जाता है; और ऐसा स्वभाव बन जाने पर सूर्य जैसे दूसरों को प्रकाश देता हुआ अपने आप को भी प्रकाशित कर लेता है वैसे ही साधु पुरुष के परार्थ उद्योग से ही उसका योग-क्षेम भी आप ही आप सिद्ध होता जाता है। परोपकार करने के इस देह-स्वभाव और अनासक्त-बुद्धि के एकत्र हो जाने पर ब्रह्मात्मैक्य-बुद्धिवाले साधु पुरुष अपना कार्य सदा जारी रखते हैं; कितने ही संकट क्यों न चले आवें, वे उनकी बिलकुल परवा नहीं करते; और न यही सोचते हैं कि संकटों का सहना भला है या जिस लोककल्याण की बदौलत ये संकट आते हैं, उसको छोड़ देना भला है; तथा यदि प्रसंग आ जाय तो आत्मबलि दे देने के लिये भी ये तैयार रहतें हैं, इन्हें उसकी कुछ भी चिन्ता नहीं होती! किन्तु जो लोग स्वार्थ और परार्थ को दो भिन्न वस्तुएं समझ, उन्हें तराजू के दो पलड़ों में डाल, कांटे का झुकाव देख कर धर्म-अधर्म का निर्गुण करना सीखे हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 19. 4. 10
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