गीता रहस्य -तिलक पृ. 375

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

किन्‍तु थोड़ा सा विचार करने से किसी को भी सहज ही देख पड़ेगा कि ये आक्षेप स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी के बर्ताव को उपयुक्‍त नहीं होते। और तो क्‍या, यह भी कह सकते हैं कि प्राणिमात्र में एक आत्‍मा अथवा आत्‍मौपम्‍य-बुद्धि के तत्‍व से व्‍यावहारिक नीतिधर्म की जैसी अच्‍छी उपपत्ति लगती है, वैसी और किसी भी तत्‍व से नहीं लगती। उदाहरण के लिये उस परोपकार धर्म को ही लीजिये कि जो सब देशों में और सब नीतिशास्‍त्रों में प्रधान माना गया है। ‘दूसरे का आत्‍मा ही मेरा आत्‍मा है‘ इस अध्‍यात्‍म तत्‍व से परोपकार धर्म की जैसी उपपत्ति लगती है, वैसी किसी भी आधिभौतिक-वाद से नहीं लगती। बहुत हुआ तो, आधिभौतिक शास्‍त्र इतना ही कह सकते हैं कि, परोपकार-बुद्धि एक नैसर्गिक गुण है और वह उत्‍क्रान्ति-वाद के अनुसार बढ़ रहा है। किन्‍तु इतने से ही परोपकार की नित्‍यता सिद्ध नहीं हो जाती; यही नहीं बल्कि स्‍वार्थ परार्थ के झगड़े में इन दोनों घोड़ों पर सवार होने के लालची चतुर स्‍वार्थियों को भी अपना मतलब गांठने में इसके कारण अवसर मिल जाता है। यह बात हम चौथे प्रकरण में बतला चुके हैं। इस पर भी कुछ लोग कहते हैं कि, परोपकार-बुद्धि की नित्यता सिद्ध करने में लाभ ही क्‍या है ?

प्राणिमात्र में एक ही आत्‍मा मान कर यदि प्रत्‍येक पुरुष सदा सर्वदा प्राणिमात्र का ही हित करने लग जाय तो उसकी गुजर कैसे होगी? और जब वह इस प्रकार अपना ही योग क्षेम नहीं चला सका, तब वह और लोगों का कल्‍याण कर ही कैसे सकेगा? लेकिन ये शंकाएं न तो नई ही हैं और न ऐसी हैं कि जो टाली न जा सकें। भगवान ने गीता में इसी प्रश्‍न का उत्‍तर यों दिया है-‘’तेषां नित्‍यभियुक्‍तानां योगक्षेम वहाम्‍यहम्’’[1]; और अध्‍यात्‍मशास्‍त्र की युक्तियों से भी यही अर्थ निष्‍पन्‍न होता है। जिसे लोक कल्‍याण करने की बुद्धि हो गई, उसे कुछ खाना पीना नहीं छोड़ना पड़ता; परन्‍तु उसकी बुद्धि ऐसी होनी चाहिये कि मैं लोकोपकार के लिये ही देह धारण करता हूँ। जनक ने कहा है[2] कि जब ऐसी बुद्धि रहेगी तभी इन्द्रियां काबू में रहेंगी और लोक कल्‍याण होगा; और मीमांसकों के इस सिद्धान्‍त का तत्‍व भी यही है कि यज्ञ करने से शेष बचा हुआ अन्‍न ग्रहण करने वाले को ‘अमृताशी’ कहना चाहिये[3]। क्‍योंकि, उनकी दृष्टि से जगत् को धारण-पोषण करने वाला कर्म ही यज्ञ है, अतएव लोक कल्‍याण कारक कर्म करते समय उसी से अपना निर्वाह होता है और करना भी चाहिये उनका निश्‍चय है कि अपने स्‍वार्थ के लिये यज्ञ चक्र को डुबा देना अच्‍छा नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 9. 22
  2. मभा. अश्‍व. 32
  3. गी. 4. 31

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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