गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
उसी प्रकार पक्षभिमान के अन्धे इन आक्षेप-कर्त्ताओं को उल्लिखित सिद्धान्त का ठीक ठीक अर्थ अवगत न हो तो इसका दोष भी इस सिद्धान्त के मत्थे नहीं थोपा जा सकता। इसे गीता भी मानती है कि किसी की शुद्धबुद्धि की परीक्षा पहले पहल उसके ऊपरी आचरण से ही करनी पड़ती है; और जो इस कसौटी पर चौकस सिद्ध होने में अभी कुछ कम है, उन अपूर्ण अवस्था के लोगों को उक्त सिद्धान्त लागू करने की इच्छा अध्यात्म-वादी भी नहीं करते। पर जब किसी की बुद्धि के पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ और नि:सीम निष्काम होने में तिल भर भी सन्देह न रहे, तब उस पूर्ण अवस्था में पहुँचे हुए सत्पुरुष की बात निराली हो जाती है। उसका कोई एक-आध काम यदि लौकिक दृष्टि से विपरीत देख पड़े, तो तत्वत: यही कहना पड़ता है कि उसका बीज निर्दोष ही होगा अथवा वह शास्त्र की दृष्टि से कुछ योग्य कारणों के होने से ही हुआ होगा, या साधारण मनुष्यों के कामों के समान उसका लोभमूलक या अनीति का होना सम्भव नहीं है; क्योंकि उसकी बुद्धि की पूर्णता, शुद्धता और समता पहले से ही निश्चित रहती है। बाइबल में लिखा है कि अब्राहम अपने पुत्र का बलिदान देना चाहता था, तो भी उसे पुत्रहत्या कर डालने के प्रयत्न का पाप नहीं लगा; या बुद्ध के शाप से उसका ससुर मर गया तो भी उसे मनुष्यहत्या का पातक छू तक नहीं गया; अथवा माता को मार ड़ालने पर भी परशुराम के हाथ से मातृहत्या नहीं हुई; उसका कारण भी वही तत्व है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। गीता में अर्जुन को यह उपदेश किया गया है कि ‘’तेरी बुद्धि यदि पवित्र और निर्मल हो तो फलाशा छोड़कर केवल क्षात्रधर्म के अनुसार युद्ध में भीष्म और द्रोण को मार डालने से भी तुझे पितामह के बध का पातक लगेगा और न गुरुहत्या का दोष; क्योंकि ऐसे समय ईश्वरी संकेत की सिद्धि के लिये तू तो केवल निमित्त हो गया है’’[1], इसमें भी यही तत्व भरा है व्यवहार में भी हम यही देखते हैं कि यदि किसी लखपती ने, किसी भिखमंगे के दो पैसे छीन लिये हों तो उस लखपती को तो कोई चोर कहता नहीं; उल्टा यही समझ लिया जाता है कि भिखारी ने ही कुछ अपराध किया होगा कि जिसका लखपती ने उसको दण्ड दिया है। यही न्याय इससे अधिक समर्थक रीति से या पूर्णता से स्थितप्रज्ञ, अर्हत और भगवद्भक्त के बर्ताव को उपयोगी होता है। क्योंकि लक्षाधीश की बुद्धि एक बार भले ही डिग जाय; परन्तु यह जानी बूझी बात है कि स्थितप्रज्ञ की बुद्धि को ये विकार कभी स्पर्श तक नहीं कर सकते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी. 11. 33
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