गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दूसरा प्रकरण
यद्यपि मनुष्य- देह दुर्लभ और नाशवान भी है तथापि, जब उसका नाश करके उससे भी अधिक किसी शाश्वत वस्तु की प्राप्ति कर लेनी होती है, (जैसे देश, धर्म और सत्य के लिये; अपनी प्रतिज्ञा, व्रत और विरद की रक्षा के लिये; एवं इज्जत, कीर्ति और सर्व भूतहित के लिये) तब ऐसे समय पर, अनेक महात्माओं ने इस तीव्र कर्तव्य आग्रि मे आनन्द से अपने प्राणों की भी आहुति दे दी है! जब राजा दिलीप, अपने गुरु वशिष्ठ की गाय की रक्षा करने के लिये, सिंह को अपने शरीर का बलिदान देने को तैयार हो गया, तब वह सिंह से बोला कि हमारे समान पुरुषों की “इस पांच भौतिक शरीर के विषय में अनास्था रहती है, अतएव तू मेरे इस जड़ शरीर के बदले मेरे यश रूपी शरीर की और ध्यान दे”[1]। कथासरत सागर और नागानन्द नाटक में यह वर्णन है कि सर्पों की रक्षा करने के लिये जीमूत वाहन ने गरुड़ को स्वयं अपना शरीर अर्पण कर दिया। मृच्छकटिक नाटक[2] में चारुदत कहता हैः - न भीतो भरणादस्मि केवलं दूषितं यश। “मैं मृत्यु से नहीं डरता; मुझे यही दुःख है कि मेरी कीर्ति कलंकित हो गई। यदि कीर्ति शुद्ध रहे और मृत्यु भी आ जाय, तो मैं उसको पुत्र के उत्सव के समान मानूंगा ।” इसी तत्त्व के आधार पर महाभारत[3] में राजा शिबि और दधीचि ऋषि की कथाओं का वर्णन किया है। जब धर्मराज(यम), श्येन पक्षी का रूप धारण करके, कपोत के पीछे उडे़ और जब वह कपोत अपनी रक्षा के लिये राजा शिबि की शरण में गया तब राजा ने स्वयं अपने शरीर का मांस काट कर उस श्येन पक्षी को दे दिया और शरणागत कपोत की रक्षा की। वृत्रासुर नाम का देवताओं का एक शत्रु था। उसको मारने के लिये दधीचि ऋषि की हड्डियों के वज्र की आवश्यकता हुई। तब सब देवता मिल कर उक्त ऋषि के पास गये और बोले “शरीरत्यागं लोकहितार्थ भवान् कर्तुमर्हति” - हे महाराज! लोगों के कल्याण के लिये आप देह त्याग कीजिये। यह विनती सुन दधीचि ऋषि ने बडे आनन्द से अपना शरीर त्याग दिया और अपनी हड्डियां देवताओं को दे दीं। एक समय की बात है कि इन्द्र, ब्राह्मण का रूप धारण करके, दानशूर कर्ण के पास कवच और कुंडल मांगने आया। कर्ण इन कवच-कुंडलों को पहने हुए ही जन्मा था। जब सूर्य ने जाना कि इन्द्र कवचकुंडल मांगने जा रहा है तब उसने पहले ही से कर्ण को सूचना दे दी थी कि तुम अपने कवच-कंडल किसी को दान मत देना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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