गीता रहस्य -तिलक पृ. 359

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
बारहवां प्रकरण

जबकि भगवान की ही इच्‍छा है कि इस रीति से उसका नाश न हो, वह भली-भाँति चलती रहे; तब ज्ञानी पुरुष को भी जगत् के सभी कर्म निष्‍काम बुद्धि से करते हुए सामान्‍य लोगों को अच्‍छे बर्ताव का प्रत्‍यक्ष नमूना दिखला देना चाहिये। इसी मार्ग को अधिक श्रेयस्‍कर और ग्राह्य कहें, तो यह देखने की ज़रूरत पड़ती है कि इस प्रकार का ज्ञानी पुरुष जगत के व्‍यवहार किस प्रकार करता है। क्‍योंकि ऐसे ज्ञानी पुरुष का व्‍यवहार ही लोगों के लिये आदर्श है; उसके कर्म करने की रीति को परख लेने से धर्म-अधर्म, कार्य-अकार्य अथवा कर्तव्‍य–अकर्तव्‍य का निर्णय कर देने वाला साधन या युक्ति-जिसे हम खोज रहे थे आप ही आप हमारे हाथ लग जाती है। संन्‍यासमार्ग की अपेक्षा कर्मयोग मार्ग में यही तो विशेषता है। इन्द्रियों का निग्रह करने से जिस पुरुष की व्‍यवसायात्‍मक बुद्धि स्थिर ही कर ‘’सब भूतों में एक आत्‍मा‘’ इस साम्‍य को परख लेने में समर्थ हो जाय, उसकी वासना भी शुद्ध ही होती है; और इस प्रकार वासनात्‍मक बुद्धि के शुद्ध , सम, निर्मम और पवित्र हो जाने से फिर वह कोई भी पाप या मोक्ष के लिये प्रतिबन्‍धक कर्म कर ही नहीं सकता। क्‍योंकि पहले वासना है फिर तद्नुकूल कर्म; जबकि क्रम ऐसा है तब शुद्ध वासना से होने वाले कर्म शुद्ध ही होगा, और जो शुद्ध है वही मोक्ष के लिये अनुकूल है।

अर्थात् हमारे आगे जो कर्म-अकर्म विचिकित्‍सा ‘या’ कार्य-अकार्य व्‍यवस्थित’ का बिकट प्रश्‍न था कि पारलोकिक कल्‍याण के मार्ग में आड़े न आ कर इस संसार में मनुष्‍यमात्र को कैसा बर्ताव करना चाहिये, उसका अपनी करनी से प्रत्‍यक्ष उत्‍तर देने वाला गुरु अब हमें मिल गया[1]अर्जुन के आगे ऐसा गुरु श्रीकृष्‍ण के रूप में प्रत्‍यक्ष खड़ा था जब अर्जुन को यह शंका हुई कि ‘क्‍या ज्ञानी पुरुष युद्ध आदि कर्मों को बन्‍धकनकारक समझ कर छोड़ दे, तब उसको इस गुरु ने दूर वहा दिया और अध्‍यात्‍मशास्‍त्र के सहारे अर्जुन को भली-भाँति समझा दिया कि जगत् के व्‍यवहार किस युक्ति से करते रहने पर पाप नहीं लगता; अत: वह युद्ध के लिये प्रवृत्‍त हो गया। किन्‍तु ऐसा चोखा ज्ञान लखा देनेवाले गुरु प्रत्‍येक मनुष्‍य को जब चाहे तब नहीं मिल सकते; और तीसरे प्रकरण के अन्‍त में, ‘’महाजनों येन गत: स पन्‍था:’’ इस वचन का विचार करते हुए हम बतला आये हैं कि ऐसे महापुरुषों के निरे ऊपरी बर्ताव पर बिलकुल अवलम्बित रह भी नहीं सकते। अतएव जगत् को अपने आचरण से शिक्षा देनेवाले इन ज्ञानी पुरुषों के बर्ताव की बड़ी बारीकी से जांच कर विचार करना चाहिये कि इनके बर्ताव का यथार्थ रहस्‍य या मूल तत्‍व क्‍या है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तै. 1. 11. 4; गी्. 3. 21

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः