गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
बिना टीका का मूल ग्रन्थ पढ़ने से किसी के भी ध्यान में सहज ही आ पावेगा, कि टीकाकरों का यह अर्थ खींचातानी का ज्ञानवासिष्ठतत्वसारायण नामक एक ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इसके ज्ञानकाण्ड, उपासना काण्ड और कर्मकाण्ड- ये तीन भाग हैं। हम पहले कह चुके है, कि यह ग्रन्थ जितना पुराना बतलाया जाता है उतना वह दिखता नहीं है। यह प्राचीन भले ही न हो; पर जबकि ज्ञान कर्म-समुच्चय पक्ष ही इसतें प्रतिपाद्य है, तब इस स्थान पर उसका उल्लेख करना आवश्यक है। इसमें अद्वैत वेदान्त है और निष्काम कर्म पर ही बहुत जोर दिया गया है इसलिये यह कहने में कोई हानि नहीं, कि इसका सम्प्रदाय श्रीशंकराचार्य के सम्प्रदाय से भिन्न और सवतंत्र है। मद्रास की ओर इस सम्प्रदाय का नाम ‘अनुभावद्वैत’ है; और वास्तविक देखने से ज्ञात होगा, कि गीता के कर्मयोग की यह एक नकल ही है। परन्तु केवल भगवद्गीता के ही आधार से इस सम्प्रदाय को सिद्ध न कर, इस ग्रन्थ में कहा है, कि कुल 108 उपनिषदों से भी वही अर्थ सिद्ध होता है। इसमें रामगीता और सूर्यगीता, ये दोनों नई गीताएं भी दी हुई हैं। कुछ लोगों की जो यह समझ है, कि अद्वैत मत को अंगीकार करना मानो कर्म-संन्यासपक्ष को स्वीकार करना ही है, वह इस ग्रन्थ से दूर हो जायेगी। ऊपर दिये गये प्रमाणों से अब स्पष्ट हो जायेगा कि संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद धर्मसूत्र, मनु-याज्ञवल्क्य-स्मृति, महाभारत, भगवद्गीता, योगवासिष्ठ और अन्त में तत्वसारायण प्रभृति ग्रन्थों में भी जो निष्काम कर्मयोग प्रतिपादित है, उसको श्रुति-स्मृति प्रतिपादित न मान केवल संन्यास मार्ग को ही श्रुति-स्मृति-प्रतिपादित कहना सर्वथा निर्मूल है। इस मृत्युलोक का व्यवहार चलने के लिये या लोकसंग्रहार्थ यथाधिकार निष्काम कर्म, और मोक्ष की प्राप्ति के लिये ज्ञान, इन दोनों का एककालीन समुच्च ही, अथवा महाराष्ट्र कवि शिवदिन-केसरी के वर्णनानुसार- प्रपंच साधुनि परमार्थाचा लाहो ज्यानें केला। यही अर्थ, गीता में प्रतिपाद्य है। कर्मयोग का यह मार्ग प्राचीन काल से चला आ रहा है; जनक प्रभृति ने इसी का आचरण किया है और स्वयं भगवान् के द्वारा इसका प्रसार और पुनरूज्जीवन होने के कारण इसे ही भागवतधर्म कहते हैं। ये सब बातें अच्छी तरह सिद्ध हो चुकीं। अब लोकसंग्रह की दृष्टि से यह देखना भी आवश्यक है, कि इस मार्ग के ज्ञानी पुरुष परमार्थ युक्त् अपना प्रपञ्च-जगत् का व्यवहार-किस रीति से चलाते हैं। परन्तु यह प्रकरण बहुत बढ़ गया है, इसलिये इस विषय का स्पष्टीकरण अगले प्रकरण में करेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘’वही नर भला हे जिसने प्रपच्च साध कर ( संसार के सब कर्त्तव्यों का यथोचित पालन कर परमार्थ यानी मोक्ष की प्राप्ति भी कर ली हो।’’
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