गीता रहस्य -तिलक पृ. 355

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

उदाहरणार्थ, वाजसनेयी संहिता पर अर्थात् ईशावास्‍योपनिषद पर भी उवटाचार्य का जो भाष्‍य है, उसमें ‘’विद्यां चाविद्यां च’’ इस मन्‍त्र का व्‍याख्‍यान करते हुए ऐसा अर्थ दिया है कि ‘’विद्या=आत्‍मज्ञान और अविद्या = कर्म, इन दोनों के एकीकरण से ही अमृत अर्थात् मोक्ष मिलता है।‘’ अनन्‍ताचार्य ने इस उपनिषद पर अपने भाष्‍य में इसी ज्ञान-कर्म समुच्‍चयात्‍मक अर्थ को स्‍वीकार कर अन्‍त में साफ लिख दिया है कि ‘’इस मन्‍त्र का सिद्धान्‍त और ‘यत्‍सांख्‍यै: प्राप्‍यते स्‍थानं तद्योगैरपि गम्‍यते’[1] गीता के इस वचन का अर्थ एक ही है ; एवं गीता के इस श्‍लोक में जो ‘सांख्‍य और ‘योग’ शब्‍द हैं, वे क्रम से ‘ज्ञान’ और ‘कर्म’ के द्योतक हैं’’[2]। इसी प्राकर अपरार्कदेव ने भी याज्ञवल्‍क्‍य-स्‍मृति[3] की अपनी टीका में ईशावास्‍य का ग्‍यारहवां मन्‍त्र दे कर, अनन्‍ताचार्य के समान ही, उसका ज्ञान-कर्म-समुच्‍चयात्‍मक अर्थ किया है। इससे पाठकों के ध्‍यान में आ जावेगा, कि आज हम ही नये सिरे से ईशावासयोंपनिषद के मन्‍त्र का शंकरभाष्‍य से भिन्‍न अर्थ नहीं करते हैं।

यह तो हुआ स्‍वयं ईशावास्‍योपनिषद के मन्‍त्र के सम्‍बन्‍ध का विचार। अब शांकर भाष्‍य में जो ‘’तपसा कल्‍मषं हन्ति विद्यायाऽमृतमश्‍नुते‘’ यह मनु का वचन दिया है, उसका भी थोड़ा सा विचार करते हैं। मनुस्‍मृति के बारहवें अध्‍याय में यह 104 नम्‍बर का श्‍लोक है; और मनु.12. 86 से विदित होगा, कि वह प्रकरण वैदिक कर्मयोग का है। कर्मयोग के इस विवेचन में-

तपो विद्या च विप्रस्‍य नि:श्रेयसकरं परम्।
तपसा कल्‍मषं हन्तिविद्ययाऽमृतमश्‍नुते।।

पहले चरण में यह बतला कर, कि ‘’तप और (च) विद्या ( अर्थात् दोनों ) ब्राह्मण को उत्‍तम मोक्षदायक हैं,‘’ फिर प्रत्‍ये का उपयोग दिखलाने के लिये दूसारे चरण मे कहा है, कि ‘’तप से दोष नष्‍ट हो जाते हैं और विद्या से अमृत अर्थात् मोक्ष मिलता है,‘’ इससे प्रगट होता है, कि इस स्‍थान पर ज्ञान-कर्म-समुच्‍चय ही मनु को अभिप्रेत है और ईशावास्‍य के ग्‍यारहवें मंत्र का अर्थ ही मनु ने इस श्‍लोक में वर्णन कर दिया है। हारीतस्‍मृति के वचन से भी यही अर्थ अधिक दृढ़ होता है। यह हारीतस्‍मृति स्‍वतन्‍त्र तो उपलब्‍ध है ही, इसके सिवा यह नृसिंहपुराण[4] में भी आई है। इस नृसिंहपुराण[5] में और हरीत स्‍मृति[6] में ज्ञान-कर्म-समुच्‍चय के सम्‍बन्‍ध में ये श्‍लोक हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 5. 5
  2. पूने के आनन्‍दाश्रम में, ईशावास्‍योपनिषद की जो पोथी छपी है, उसमें ये सभी भाष्‍य है; और याज्ञवल्‍क्‍य स्‍मृति पर अपरार्क की टीका भी आनन्‍दाश्रम में ही पृथक छपी है। प्रो. मेक्‍समूलर ने उपनिषदों का जो अनुवाद किया है, उसमें ईशावास्‍य का भाषान्‍तर शांकरभाष्‍य के अनुसार नहीं है। उन्‍हीं ने भाषान्‍तर के अन्‍त में इसके कारण बतलाये हैं। ( Sacred /Books of the East Series, vol. I. pp. 314-320). अनन्‍ताचार्य का भाष्‍य मेक्‍समूलर साहब को उपलब्‍ध न हुआ था; और उनके ध्‍यान में यह बात आई हुई नहीं देख पड़ती, कि शांकर माध्‍य में निराला अर्थ क्‍यों किया गया है।
  3. 3. 57 और 205
  4. आ. 57-61
  5. 61. 9. 11
  6. 7. 9-11

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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