गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
अर्थात् ‘’जिसने विद्या ( ज्ञान ) और अविद्या ( कर्म ) दोनों को एक दूसरी के साथ जान लिया, वह अविद्या ( कर्मों ) से मृत्यु को अर्थात् नाशवन्त माया-सृष्टि के प्रपञ्च को ( भली-भाँति ) पार कर, विद्या ( ब्रह्मज्ञान ) से अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है।’’ इस मन्त्र का यही स्पष्ट और सरल अर्थ है। और यही अर्थ, विद्या को ‘संभूति’ ( जगत् का आदि कारण ) एवं उससे भिन्न अविद्या को ‘असंभूति‘ या ‘विनाश’ ये दूसरे नाम दे कर इसके आगे के तीन मन्त्रों में फिर से दुहराया गया है[1]। इससे व्यक्त होता है, कि समूचा ईशावास्योपनिषद विद्या और अविद्या का एककालीन ( उभयं सह ) समुच्चय प्रतिपादन करता है। उल्लिखित मंत्र में ‘विद्या’ और ‘अविद्या’ शब्दों के समान ही मृत्यु और अमृत शब्द परस्पर प्रतियोगी हैं। इनमें अमृत शब्द से ‘अविनाशी ब्रह्म’ अर्थ प्रगट है, और इसके विपरीत मृत्यु शब्द से ‘नाशवन्त मृत्युलोक या ऐहिक संसार’ यह अर्थ निष्पन्न होता है। ये दोनों शब्द इसी अर्थ में ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में आये हैं[2]। विद्या आदि शब्दों के ये सरल अर्थ ले कर ( अर्थात् विद्या=ज्ञान, अविद्या=कर्म, अमृत=ब्रह्म और मृत्यु=मृत्युलोक. ऐसा समझ कर) यदि ईशावास्य के उल्लिखित ग्यारहवें मंत्र का अर्थ करें: तो देख पड़ेगा कि इस मंत्र के पहले चरण में विद्या और अविद्या का एककालीन समुच्चय वर्णित है, और इसी बात को दृढ़ करने के लिये दूसरे चरण में इन दोनों में से प्रत्येक का जुदा जुदा फल बतलाया है। ईशावास्योपनिषद को ये दोनों फल इष्ट हैं, और इसी लिये इस उपनिषद में ज्ञान और कर्म दोनों का एक कालीन समुच्चय प्रतिपादित हुआ है। मृत्युलोक के प्रपंच को अच्छी रीति से चलाने या उससे भली-भाँति पार पड़ने को ही गीता में ‘लोकसंग्रह’ नाम दिया गया है। यह सच है कि मोक्ष प्राप्त करना मनुष्य का कर्त्तव्य है; परन्तु उसके साथ ही साथ उसे लोकसंग्रह करना भी आवश्यक है। इसी से गीता का सिद्धान्त है, कि ज्ञानी पुरुष लोकसंग्रहकारक कर्म न छोड़े और यही सिद्धान्त शब्द-भेद से ‘’अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते’’ इस उल्लिखित मंत्र में आ गया है। इससे प्रगट होगा, कि गीता उपनिषदों को पकड़े ही नहीं है, पत्युत ईशावास्योपनिषद में स्पष्टतया वर्णित अर्थ ही गीता में विस्तार सहित प्रतिपादित हुआ है। ईशावास्योपनिषद जिस वाजसनेयी संहिता में है, उसी वाजसेनेयी संहिता का भाग शतपथ ब्राह्मण है। इस शतपथ ब्राह्मण के आरणयक में बृहदारण्यकोपनिषद आया है, जिसमें ईशावास्य का यह नवां मंत्र अक्षरश: ले लिया है, कि ‘’कोरी विद्या ( ब्रह्मज्ञान ) में मग्न में रहनेवाले पुरुष अधिक अँधेरे में जा पड़ते हैं’’[3]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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